संपूर्ण महाभारत कथा


Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा!


Complete Mahabharata Story In Hindi | सम्पूर्ण महाभारत की कथा!


Complete Mahabharata Story In Hindi


“महाभारत” भारत का अनुपमधार्मिकपौराणिकऐतिहासिक और दार्शनिक ग्रंथ है। यह हिन्दू धर्म के मुख्यतम ग्रंथों में से एक है। यह विश्व का सबसे लंबा साहित्यिक ग्रंथ हैहालाँकि इसे साहित्य की सबसे अनुपम कृतियों में से एक माना जाता हैकिन्तु आज भी यह प्रत्येक भारतीय के लिये एक अनुकरणीय स्रोत है।

हिन्दू मान्यताओंपौराणिक संदर्भो एवं स्वयं महाभारत के अनुसार इस काव्य का रचनाकार वेदव्यास जी को माना जाता है, और इसे लिखने का श्रेय भगवान गणेश को जाता है, इसे संस्कृत भाषा में लिखा गया था। इस काव्य के रचयिता वेदव्यास जी ने अपने इस अनुपम काव्य में वेदोंवेदांगों और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरुपण किया हैं। इसके अतिरिक्त इस काव्य में न्यायशिक्षाचिकित्साज्योतिषयुद्धनीतियोगशास्त्रअर्थशास्त्रवास्तुशास्त्रशिल्पशास्त्रकामशास्त्रखगोलविद्या तथा धर्मशास्त्र का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं।

महाभारत की विशालता और दार्शनिक गूढता न केवल भारतीय मूल्यों का संकलन है बल्कि हिन्दू धर्म और वैदिक परम्परा का भी सार है। महाभारत की विशालता महानता और सम्पूर्णता का अनुमान उसके प्रथमपर्व में उल्लेखित एक श्लोक से लगाया जा सकता है, जिसका भावार्थ है,
जो यहाँ (महाभारत में) है वह आपको संसार में कहीं न कहीं अवश्य मिल जायेगाजो यहाँ नहीं है वो संसार में आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगा
यह कृति प्राचीन भारत के इतिहास की एक गाथा है। इसी में हिन्दू धर्म का पवित्रतम ग्रंथ भगवद्गीता सन्निहित है। पूरे महाभारत में लगभग १,१०,००० श्लोक हैंजो यूनानी काव्यों इलियड और ओडिसी से परिमाण में दस गुणा अधिक हैं।

विद्वानों में महाभारत काल को लेकर विभिन्न मत हैंफिर भी अधिकतर विद्वान महाभारत काल को 'लौहयुगसे जोड़ते हैं। अनुमान किया जाता है कि महाभारत में वर्णित 'कुरु वंश' 1200 से 800 ईसा पूर्व के दौरान शक्ति में रहा होगा। पौराणिक मान्यता को देखें तो पता लगता है कि अर्जुन के पोते परीक्षित और महापद्मनंद का काल 382 ईसा पूर्व ठहरता है।


यह महाकाव्य 'जय', 'भारतऔर 'महाभारत' इन तीन नामों से प्रसिद्ध हैं। वास्तव में वेद व्यास जी ने सबसे पहले १,००,००० श्लोकों के परिमाण के 'भारतनामक ग्रंथ की रचना की थीइसमें उन्होने भरतवंशियों के चरित्रों के साथ-साथ अन्य कई महान ऋषियोंचन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों सहित कई अन्य धार्मिक उपाख्यान भी डाले। इसके बाद व्यास जी ने २४,००० श्लोकों का बिना किसी अन्य ऋषियोंचन्द्रवंशी-सूर्यवंशी राजाओं के उपाख्यानों का केवल भरतवंशियों को केन्द्रित करके 'भारतकाव्य बनाया। इन दोनों रचनाओं में धर्म की अधर्म पर विजय होने के कारण इन्हें 'जयभी कहा जाने लगा। महाभारत में एक कथा आती है कि जब देवताओं ने तराजू के एक पासे में चारों "वेदों" को रखा और दूसरे पर 'भारत ग्रंथको रखातो 'भारत ग्रंथसभी वेदों की तुलना में सबसे अधिक भारी सिद्ध हुआ। अतः 'भारतग्रंथ की इस महत्ता (महानता) को देखकर देवताओं और ऋषियों ने इसे 'महाभारतनाम दिया और इस कथा के कारण मनुष्यों में भी यह काव्य 'महाभारतके नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध हुआ।

महाकाव्य का लेखन

'महाभारतमें इस प्रकार का उल्लेख आया है कि वेदव्यास ने हिमालय की तलहटी की एक पवित्र गुफ़ा में तपस्या में संलग्न तथा ध्यान योग में स्थित होकर महाभारत की घटनाओं का आदि से अन्त तक स्मरण कर मन ही मन में महाभारत की रचना कर ली थीपरन्तु इसके पश्चात उनके सामने एक गंभीर समस्या आ खड़ी हुई कि इस महाकाव्य के ज्ञान को सामान्य जन साधारण तक कैसे पहुँचाया जायेक्योंकि इसकी जटिलता और लम्बाई के कारण यह बहुत कठिन कार्य था कि कोई इसे बिना किसी त्रुटि के वैसा ही लिख देजैसा कि वे बोलते जाएँ। इसलिए ब्रह्मा के कहने पर व्यास भगवान गणेश के पास पहुँचे। गणेश लिखने को तैयार हो गयेकिंतु उन्होंने एक शर्त रख दी कि कलम एक बार उठा लेने के बाद काव्य समाप्त होने तक वे बीच में रुकेंगे नहीं। व्यासजी जानते थे कि यह शर्त बहुत कठनाईयाँ उत्पन्न कर सकती हैं।

अतः उन्होंने भी अपनी चतुरता से एक शर्त रखी कि कोई भी श्लोक लिखने से पहले गणेश को उसका अर्थ समझना होगा। गणेश ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। इस तरह व्यास बीच-बीच में कुछ कठिन श्लोकों को रच देते। जब गणेश उनके अर्थ पर विचार कर रहे होतेउतने समय में ही व्यासजी कुछ और नये श्लोक रच देते। इस प्रकार सम्पूर्ण महाभारत तीन वर्षों के अन्तराल में लिखी गयी।

वेदव्यास ने सर्वप्रथम पुण्यकर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों का आद्य भारत ग्रंथ बनाया। तदन्तर उपाख्यानों को छोड़कर चौबीस हज़ार श्लोकों की 'भारतसंहिताबनायी। तत्पश्चात व्यासजी ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायीजिसके तीस लाख श्लोक देवलोक मेंपंद्रह लाख पितृलोक में तथा चौदह लाख श्लोक गन्धर्वलोक में समादृत हुए। मनुष्यलोक में एक लाख श्लोकों का आद्य भारत प्रतिष्ठित हुआ। महाभारत ग्रंथ की रचना पूर्ण करने के बाद वेदव्यास ने सर्वप्रथम अपने पुत्र शुकदेव को इस ग्रंथ का अध्ययन कराया।

महाभारत के पर्व

महाभारत की मूल अभिकल्पना में अठारह की संख्या का विशिष्ट योग है। कौरव और पाण्डव पक्षों के मध्य हुए युद्ध की अवधि अठारह दिन थी। दोनों पक्षों की सेनाओं का सम्मिलित संख्याबल भी अठ्ठारह अक्षौहिणी था। इस युद्ध के प्रमुख सूत्रधार भी अठ्ठारह थे। महाभारत की प्रबन्ध योजना में सम्पूर्ण ग्रन्थ को अठारह पर्वों में विभक्त किया गया है और महाभारत में 'भीष्म पर्वके अन्तर्गत वर्णित 'श्रीमद्भगवद्गीतामें भी अठारह अध्याय हैं।

सम्पूर्ण महाभारत अठारह पर्वों में विभक्त है। पर्व’ का मूलार्थ है- "गाँठ या जोड़"। पूर्व कथा को उत्तरवर्ती कथा से जोड़ने के कारण महाभारत के विभाजन का यह नामकरण यथार्थ है। इन पर्वों का नामकरणउस कथानक के महत्त्वपूर्ण पात्र या घटना के आधार पर किया जाता है। मुख्य पर्वों में प्राय: अन्य भी कई पर्व हैं। इन पर्वों का पुनर्विभाजन अध्यायों में किया गया है। पर्वों और अध्यायों का आकार असमान है। कई पर्व बहुत बड़े हैं और कई पर्व बहुत छोटे हैं। अध्यायों में भी श्लोकों की संख्या अनियत है। किन्हीं अध्यायों में पचास से भी कम श्लोक हैं और किन्हीं-किन्हीं में संख्या दो सौ से भी अधिक है
आदि पर्व की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- जैसा कि नाम से ही विदित होता हैयह महाभारत जैसे विशाल ग्रन्थ की मूल प्रस्तावना है। प्रारम्भ में महाभारत के पर्वों और उनके विषयों का संक्षिप्त संग्रह है। कथा-प्रवेश के बाद च्यवन का जन्मपुलोमा दानव का भस्म होनाजनमेजय के सर्पसत्र की सूचनानागों का वंशकद्रू कद्रू और विनता की कथादेवों-दानवों द्वारा समुद्र मंथनपरीक्षित का आख्यानसर्पसत्रराजा उपरिचर का वृत्तान्तव्यास आदि की उत्पत्तिदुष्यन्त-शकुन्तला की कथापुरूरवानहुष और ययाति के चरित्र का वर्णनभीष्म का जन्म और कौरवों-पाण्डवों की उत्पत्तिकर्ण-द्रोण आदि का वृत्तान्तद्रुपद की कथालाक्षागृह का वृत्तान्तहिडिम्ब का वध और हिडिम्बा का विवाहबकासुर का वधधृष्टद्युम्न और द्रौपदी की उत्पत्तिद्रौपदी-स्वयंवर और विवाहपाण्डव का हस्तिनापुर में आगमनसुन्द-उपसुन्द की कथानियम भंग के कारण अर्जुन का वनवाससुभद्राहरण और विवाहखाण्डव-दहन और मयासुर रक्षण की कथा वर्णित है।

आदिपर्व- कुरु वंश-परिचय

शांतनु और भीष्म


विचित्रवीर्य से अंबिका को धृतराष्ट्र तथा अंबालिका को पांडु नामक पुत्र पैदा हुए। विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद पांडु को राजगद्दी पर बिठाया गयाक्योंकि धृतराष्ट्र जन्मांध थे। भीष्म ने अंबिका की एक दासी के पुत्र विदुर का लालन-पालन भी राजकुमारों की तरह किया था। यही विदुर धर्म-नीति के पंडित हुए।
  
प्राचीन भारत में ययाति नाम के प्रतापी राजा राज करते थेजिनकी राजधानी खांडवप्रस्थ थी। इसी स्थान पर आगे चलकर इंद्रप्रस्थ भी बसा था। ययाति की दो रानियाँ थीं-
  • असुरों के गुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी
  • असुरों के राजा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा।


देवयानी से दो पुत्र हुए- यदु और तुर्वसु। यदु के नाम से आगे चलकर यदु वंश चला जिसमें श्रीकृष्ण भी पैदा हुए। शर्मिष्ठा के तीन पुत्र हुएजिनमें सबसे छोटा पुरु बहुत पराक्रमी तथा पितृभक्त था। ययाति ने पुरु को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया। पुरु के नाम से ही पुरु वंश की परंपरा चली। पुरु के वंश में ही आगे चलकर दुष्यंत हुए जिन्होंने शकुंतला से विवाह किया तथा उनके पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे देश का नाम भारत पड़ा। भरत के वंश में 'हस्तिननाम के राजा हुए जिन्होंने अपनी नई राजधानी हस्तिनापुर में बसाई। हस्तिन के राजवंश में कुरु नाम के राजा हुए जिनके वंशज कौरव कहलाए। कुरु के नाम से ही कुरुक्षेत्र प्रसिद्ध हुआ।

शांतनु

कौरव राजवंश में शांतनु नाम के प्रतापी राजा हुए। शांतनु ने भगवती गंगा से विवाह किया था। कहा जाता है कि एक-बार अष्ट-वसु नाम के आठ देवताओं से तंग आकर वसिष्ठ मुनि ने उन्हें शाप दिया कि उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेना होगा। परंतु आठों वसुओं की प्रार्थना परमुनि ने कहा कि सात वसुओं का तो जन्म लेते ही उद्धार हो जाएगापर सबसे उत्पाती वसु प्रभास को मृत्यु-लोक में बहुत दिन तक रहना होगा। इन्हीं अष्ट वसुओं को शाप से मुक्त कराने के लिए भगवती गंगा ने उनकी माँ बनना स्वीकार किया। शांतनु से विवाह करने पर गंगा को आठ पुत्र हुए। सात को तो गंगा ने पैदा होते ही अपनी धारा में बहा दिया। आठवें पुत्र को शांतनु ने नहीं बहाने दियातब गंगा इस पुत्र को अपने साथ स्वर्ग ले गई तथा इसका नाम देवव्रत रखा। देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए। एक दिन गंगा तट पर शांतनु ने देखा कि एक बालक ने अपने बाणों से गंगा के प्रवाह को रोक रखा है तभी गंगा प्रकट हुई तथा शांतनु को बताया कि यह आपका पुत्र देवव्रत है। शांतनु ने इसी पुत्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

भीष्म प्रतिज्ञा

एक बार शांतनु ने यमुना नदी के किनारे एक सुंदर धीवर कन्या सत्यवती को देखा तथा उससे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। सत्यवती का पिता विवाह के लिए तैयार हो गयापर उसने एक शर्त रखी कि उसकी कन्या का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। शर्त को सुनकर राजा सोच में पड़ गए तथा दुखी रहने लगे। पिता के दुख को जानकर देवव्रत स्वयं धीवर के पास गए तथा कहा कि आपकी कन्या का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। धीवर ने कहा कि मुझे आपकी बात पर पूरा भरोसा हैपर आपका पुत्र यदि राज्य का दावा करेगा तो मेरी कन्या के पुत्र का क्या होगा। इस पर देवव्रत ने प्रतिज्ञा की कि मैं आजन्म ब्रह्मचारी रहूँगा तथा आपकी कन्या का पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उन्हें भीष्म कहा जाता है। शांतनु का विवाह सत्यवती से हो गया तथा उन्हें दो पुत्र हुए-
  • चित्रांगद
  • विचित्रवीर्य


शांतनु के बाद चित्रांगद ही गद्दी पर बैठे। चित्रांगद की मृत्यु के बाद विचित्रवीर्य गद्दी पर बैठे।

धृतराष्ट्र और पांडु

विचित्रवीर्य के विवाह योग्य होने परभीष्म को काशी नरेश की तीन कन्याओं अंबाअंबिका और अंबालिका के स्वयंवर का निमंत्रण मिला। भीष्म विचित्रवीर्य को साथ लेकर स्वयंवर में गए तथा तीनों राजकन्याओं को बलपूर्वक रथ में बैठाकर ले आए। अंबा ने भीष्म से निवेदन किया कि मैं मन से शाल्वराज को अपना पति मान चुकी हूँइसीलिए भीष्म ने उसे मुक्त कर दिया और अंबिका एवं अंबालिका से विचित्रवीर्य का विवाह हो गया।

अंबा शाल्वराज के पास पहुँचीपर शाल्वराज ने उसे स्वीकार नहीं किया। दुखी अंबा का मन भीष्म से बदला लेने का वर प्राप्त किया। आगे चलकर यही अंबा शिखंडी के रूप में जन्मी तथा भीष्म की मृत्यु का कारण भी बनी।

विचित्रवीर्य से अंबिका को धृतराष्ट्र तथा अंबालिका को पांडु नामक पुत्र पैदा हुए। विचित्रवीर्य की मृत्यु के बाद पांडु को राजगद्दी पर बिठाया गयाक्योंकि धृतराष्ट्र जन्मांध थे। भीष्म ने अंबिका की एक दासी के पुत्र विदुर का लालन-पालन भी राजकुमारों की तरह किया था। यही विदुर धर्म-नीति के पंडित हुए।

धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से हुआ था। गांधारी धृतराष्ट्र के अंधा होने के कारण अपनी आँखों पर भी पट्टी बाँधे रहती थी। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र एक पुत्री हुई। पुत्रों में सबसे बड़ा दुर्योधन तथा पुत्री का नाम था दुःशलाजिसका विवाह जयद्रथ से हुआ था। धृतराष्ट्र की दूसरी पत्नी से युयुत्सु नाम का पुत्र पैदा हुआ था।

शस्त्र-शिक्षा में पांडव कौरवों से सदा आगे रहते थे। एक दिन जब बे शस्त्र-विद्या का अभ्यास कर रहे थेउनकी गेंद एक कुएँ में गिर गई। युधिष्ठिर ने जब कुएँ में झाँका तो उनकी अँगूठी भी कुएँ में गिर गई। तभी उन्हें एक तेजस्वी ब्राह्मण उधर आता दिखाई दिया। ब्राह्मण ने राजकुमारों की चिंता का कारण पूछा तथा एक सींक मंत्र पढ़कर कुएँ में छोड़ी। वह सींक गेंद पर तीर की तरह चुभ गई। इसी तरह उसने कई और सींके कुएँ में फेंकी जो एक-दूसरे के ऊपरी सिरों पर चिपकती चली गईं। जब सींक इतनी लंबी हो गई कि कुएँ के सिरे तक आ गई तो उन्होंने सींक को खींच लिया तथा गेंद बाहर आ गई। राजकुमारों को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने युधिष्ठिर की अँगूठी भी निकालने की प्रार्थना की। ब्राह्मण ने धनुष से बाण चलाकर अँगूठी को बाण की नोक में फँसाकर बाहर निकाल दिया। नाम पूछने पर पता चला कि वे आचार्य द्रोण थे।

पांडु का विवाह शूरसेन की कन्या पृथा से हुआउसी को कुंती के नाम से भी जाना जाता थाजो श्रीकृष्ण की बुआ लगती थी। कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उसे एक ऐसा मंत्र बताया था जिससे वह किसी देवता का आह्वान कर सकती थी। कौमार्य में ही कुंती ने मंत्र की परीक्षा लेने के लिए सूर्य का आह्वान किया तथा सूर्य की कृपा से उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई। लोक-लाज के भय से कुंती ने उसे गंगा में बहा दिया। कौरवों के सारथी अधिरथ ने उसका पालन-पोषण किया। कर्ण के नाम से प्रसिद्ध यह बालक सारथी द्वारा पाला गया थाइसीलिए सूत-पुत्र कहलाया। कुंती से पांडु के तीन पुत्र हुए -
  • युधिष्ठिर
  • भीम
  • अर्जुन


उनकी दूसरी पत्नी माद्री से उन्हें नकुल तथा सहदेव प्राप्त हुए। इस प्रकार धृतराष्ट्र के पुत्र कौरव तथा पांडु के पुत्र पांडव कहलाए। वन विहार करते समय पांडु की मृत्यु हो गई तथा उनकी रानी माद्री उन्हीं की चिता के साथ सती हो गई। कुंती ने ही पाँचों पुत्रों का पालन-पोषण किया।

कौरव-पांडव

कौरवों तथा पांडवों की शिक्षा कृपाचार्य की देख-रेख में होने लगी। दुर्योधन धृतराष्ट्र का सबसे बड़ा पुत्र होने के कारण अपने आपको ही राज्य का उत्तराधिकारी समझता था। वह पांडवों से ईर्ष्या रखता था तथा भीम से विशेष रूप से जलता था। भीम भी कौरवों को खूब सताता था। दुर्योधन ने भीम को मारने की योजना बनाई। वह जल-क्रीड़ा के बहाने भीम को गंगातट पर ले गया। उसने भीम के भोजन में विष मिलवा दिया तथा जब वे अचेत होकर ज़मीन पर गिर पड़े तो लताओं से बाँधकर गंगा में बहा दिया। भीम के घर न पहुँचने पर सभी को बहुत चिंता हुई। गंगा में बहते समय भीम को विषैले नागों ने डस लिया तथा नागों के विष से भोजन के विष का प्रभाव समाप्त हो गया। वे जल से बाहर आ गए। पांडव भीम को जीवित पाकर बहुत प्रसन्न हुए और दुर्योधन तथा उसके भाइयों में फिर से चिंता व्याप्त हो गई।

कौरवों और पांडवों की शस्त्र-शिक्षा

शस्त्र-शिक्षा में पांडव कौरवों से सदा आगे रहते थे। एक दिन जब बे शस्त्र-विद्या का अभ्यास कर रहे थेउनकी गेंद एक कुएँ में गिर गई। युधिष्ठिर ने जब कुएँ में झाँका तो उनकी अँगूठी भी कुएँ में गिर गई। तभी उन्हें एक तेजस्वी ब्राह्मण उधर आता दिखाई दिया। ब्राह्मण ने राजकुमारों की चिंता का कारण पूछा तथा एक सींक मंत्र पढ़कर कुएँ में छोड़ी। वह सींक गेंद पर तीर की तरह चुभ गई। इसी तरह उसने कई और सींके कुएँ में फेंकी जो एक-दूसरे के ऊपरी सिरों पर चिपकती चली गईं। जब सींक इतनी लंबी हो गई कि कुएँ के सिरे तक आ गई तो उन्होंने सींक को खींच लिया तथा गेंद बाहर आ गई। राजकुमारों को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने युधिष्ठिर की अँगूठी भी निकालने की प्रार्थना की। ब्राह्मण ने धनुष से बाण चलाकर अँगूठी को बाण की नोक में फँसाकर बाहर निकाल दिया। नाम पूछने पर पता चला कि वे आचार्य द्रोण थे। उनका विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था तथा उनके पुत्र का नाम अश्वत्थामा था। पांचाल के राजा द्रुपद आचार्य द्रोण के सहपाठी थे तथा दोनों में गहरी मित्रता थी। द्रुपद ने उनसे वायदा किया था कि राजा बनने पर वे द्रोण को आधा राज्य दे देंगेपर राजा बनने पर उन्होंने न केवल अपना वायदा भुला दियाअपितु द्रोण का अपमान भी किया। तभी से द्रोण के मन में द्रुपद से बदला लेने की भावना घर कर गई थी।

द्रोणाचार्य की शस्त्र-विद्या से प्रभावित होकर भीष्म ने द्रोणाचार्य को राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा के लिए रख लिया। इनकी शिक्षा से सभी राजकुमार धनुर्विद्या में निपुण हो गएपर अर्जुन सबसे दक्ष थे तथा इसीलिए द्रोण को सबसे अधिक प्रिय भी थे।

लक्ष्य-भेद की परीक्षा

एक दिन गुरु द्रोण ने सभी शिष्यों की परीक्षा ली। उन्होंने एक पेड़ की ऊँची डाल पर लकड़ी की एक चिड़िया रख दी तथा कहा कि चिड़िया की आँख में लक्ष्य-भेद करना है। सबसे पहले युधिष्ठिर की बारी आई। द्रोण ने उनसे पूछा कि तुम इस समय क्या देख रहे हो। युधिष्ठिर ने बताया कि मैं आपको तथा पेड़ की डाल पर रखी चिड़िया को देख रहा हूँ। द्रोण ने उनसे कहा कि तुमसे लक्ष्य-भेद न होगा। एक-दूसरे करके सभी राजकुमारों ने लगभग ऐसा ही उत्तर दिया तथा द्रोण ने सभी को हटा दिया। अंत में अर्जुन की बारी आई। जब वही प्रश्न अर्जुन से किया गया तो उन्होंने कहा कि मुझे केवल चिड़िया की आँख ही दिखाई दे रही है। यह कहकर अर्जुन ने तीर चलायाजो चिड़िया की आँख में लगा। उस दिन से अर्जुन द्रोणाचार्य के और भी प्रिय हो गए।

गुरु-भक्त एकलव्य

एक दिन एकलव्य नाम का भील बालक गुरु द्रोण के पास धनुर्विद्या सीखने की इच्छा से लाया। गुरु द्रोण ने उसे बताया कि वे केवल राजकुमारों को ही शिक्षा देते हैं। बालक चला गयापर उसने गुरु द्रोण की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या का अभ्यास किया तथा ही धनुर्विद्या में निपुण हो गया। एक दिन सभी राजकुमार जंगल में खेलने गए। एक कुत्ता भी उनके आगे-आगे चल रहा था। कुछ आहट पाकर वह भौंकने लगा। एकलव्य ने एक-एक करके कई तीर छोड़े जो कुत्ते के मुँह में जा घुसे कुत्ते का भौंकना बंद हो गयापर उसे कहीं चोट नहीं आई। राजकुमारों को बहुत आश्चर्य हुआ। जब उन्होंने एकलव्य से पूछा कि उसे धनुर्विद्या किसने सिखाई हैतो उसने द्रोण की मूर्ति की ओर इशारा किया तथा कहा-आचार्य द्रोण ने। राजधानी लौटकर राजकुमारों ने एकलव्य की धनुर्विद्या का समाचार गुरु द्रोण को सुनाया तथा कहा कि एकलव्य ने धनुर्विद्या में हमसे भी अधिक कुशलता प्राप्त कर ली है। गुरु द्रोण ने बताया कि एकलव्य को जो सिद्धि मिली हैवह उसकी गुरु-भक्ति तथा श्रद्धा का परिणाम है।

शस्त्र- संचालन का प्रदर्शन

एक दिन पितामह भीष्म ने गुरु द्रोण से सलाह करके के शस्त्र-संचालन के प्रदर्शन की व्यवस्था की। निश्चित समय पर रंगस्थली दर्शकों से भर गई। भीष्मधृतराष्ट्रगांधारीकुंतीविदुर आदि सभी उपस्थित थे। सभी ने अपना-अपना कौशल दिखाया तथा सभी का मन मोह लिया। विदुर ने धृतराष्ट्र को प्रदर्शन का वृत्तांत सुनाया। भीम और दुर्योधन ने गदा-युद्ध का कौशल दिखाया। दोनों एक-दूसरे से ईर्ष्या रखते थेअतः एक दूसरे पर वार करने लगे लगेपर गुरु द्रोण ने संकेत पर अश्वत्थामा ने उन्हें अलग-अलग कर दिया।

कर्ण की चुनौती

अर्जुन की धनुर्विद्या की प्रशंसा सभी कर रहे थे कि इसी समय कर्ण आगे आया तथा अपनी कला दिखाने की इच्छा व्यक्त करते हुए बोला कि जो कुछ अर्जुन ने कियावह मेरे लिए अत्यंत साधारण-सी बात है। कर्ण ने कहा कि मैं अर्जुन से द्वंद्व-युद्ध करना चाहता हूँ। पर कृपाचार्य ने उसे सूतपुत्र कहकर द्वंद्व-युद्ध की बात काट दीक्योंकि राजकुमार से द्वंद्व-युद्ध करने का अधिकारी राजकुमार ही होता है। इस पर दुर्योधन ने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया तथा सभाभवन में ही उसका राजतिलक कर दिया। अर्जुन ने कर्ण से कहा कि कर्ण तुम वीर होपर तुम यह मत समझो कि वीरता का वरदान केवल तुम्हें ही मिला है। संध्या हो चली थीइसीलिए पितामह भीष्म ने प्रदर्शन को बंद करने का आदेश दे दिया। अर्जुन की गर्वोक्ति कर्ण के मन में चोट बनकर रह गई।

राजा द्रुपद से प्रतिशोध

एक दिन द्रोणाचार्य ने सभी राजकुमारों को बुलाकर शस्त्र-विद्या की शिक्षा के बदले गुरुदक्षिणा माँगी। उन्होंने द्रुपद को पकड़कर अपने सामने लाने की आज्ञा दी। गुरु की आज्ञा मानकर पांडवों ने पांचाल राज्य पर आक्रमण कर दिया तथा द्रुपद को पकड़कर द्रोण के सामने उपस्थित किया। इस प्रकार द्रोण ने द्रुपद से बदला ले लिया। बाद में द्रुपद ने भी अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए पुत्रेष्टि यज्ञ किया तथा उन्हें धृष्टद्युम्न नामक पुत्र पैदा हुआ। जिसने महाभारत के युद्ध नें द्रोणाचार्य का वध किया।

लाक्षागृह-दाह

दुर्योधन दिन-रात इसी चिंता में रहता कि किसी प्रकार पांडवों का नाश करके हस्तिनापुर पर राज्य कर सके। कौरवों-पांडवों में युधिष्ठिर सबसे बड़े थे तथा इसीलिए सिंहासन के उत्तराधिकारी समझे जाते थे। पर दुर्योधन सोचता था कि उसके पिता ज्येष्ठ होने पर भी जन्मांध होने के कारण गद्दी न पा सकेतो इससे उत्तराधिकारी का नियम तो नहीं बदल जाता। धृतराष्ट्र का बड़ा पुत्र होने के कारण मैं ही गद्दी का अधिकारी हूँ। शकुनिकर्णदु:शासनआदि दुर्योधन के साथ थे। दुर्योधन ने पांडवों की बुराई करके धृतराष्ट्र को भी अपने पक्ष में कर लिया तथा पिता से पांडवों को वरणावर्त के मेले में भेजने को कहा। दुर्योधन एक योजना बनाकर पांडवों का नाश करना चाहता था। धृतराष्ट्र की आज्ञा से पांडव वरणावर्त चले गए। उनके जाते समय विदुर ने युधिष्ठिर को सावधान कर दिया तथा अगले संदेश की प्रतीक्षा करने को कहा।

एक दिन अर्जुन राजभवन के द्वार पर बैठे थेतभी एक ब्राह्मण रोता हुआ आया और उसने बताया कि चोर उसकी गाएँ चुरा ले गए हैं। अर्जुन उस समय निरस्त्र थे। उनके अस्त्र घर में थेजहाँ युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ थे। अर्जुन धर्म-संकट में पड़ गए। यदि हथियार लेने घर में जाते हैंतो बारह वर्ष का वनवास होगा और यदि गायों को नहीं छुड़ाते तो ब्राह्मण से शाप मिलेगा। अंत में वे सिर झुकाकर घर में गए तथा अस्त्र ले आए। उन्होंने ब्राह्मण की गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दी। अर्जुन ने युधिष्ठिर से बारह वर्ष के वनवास की आज्ञा माँगी। युधिष्ठिर ने बहुत समझायापर अर्जुनमाता कुंती तथा भाइयों से मिलकर बारह वर्ष के वनवास के लिए निकल पड़े।

दुर्योधन ने पुरोचन नाम के एक मंत्री से मिलकर वरणावर्त में लाख के एक महल में पांडवों को जलाकर मार डालने की योजना बना ली थी। लाख का वह महल ऐसा बनवाया गया था जो आग के स्पर्श से ही पूरी तरह जल उठे तथा पांडव जल मरें। जैसे ही पांडव वरणावर्त में बने लाख महल में जाने को तैयार हुए विदुर ने उन्हें एक संदेश भेजकर दुर्योधन की सारी योजना से सावधान करा दिया। एक कारीगर ने महल से बाहर निकलने के लिए सुरंग बना दी। पांडव महल के भीतर नहींइसी सुरंग में सोया करते थेजिससे कि महल में आग लगने पर जल्दी ही बाहर निकल सकें। कृष्ण चतुर्दशी के दिन युधिष्ठिर को पुरोचन के रंग-ढंग से अहसास हो गया कि महल में आज रात को ही आग लगाई जाएगी। युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को सचेत कर दिया। पांडवों ने उस दिन यज्ञ किया थाजिसमें नगरवासियों के साथ एक भीलनी ने भी अपने पाँच पुत्रों के साथ भोजन किया था। भोजन के बाद वह भीलनी महल में ही सो गई। पुरोचन महल के बाहरी कमरे में सो रहा था। भीम ने रात को महल में आग लगा लगा दी तथा माता कुंती को लेकर सुरंग से बाहर आ गए। पुरेचन तथा अपने पुत्रों के साथ भीलनी जल मरी है। हस्तिनापुर में शोक छा गयापर विदुर को विश्वास था कि पांडव अवश्य ही बच निकले होंगे। लाक्षागृह से निकलकर पांडव दुर्गम वन पार करते हुए गंगा तट पहुँचेजहाँ उन्हें विदुर का भेजा एक आदमी नाव के साथ मिला था पांडव उसी नाव में गंगा पार हो गए।

हिडिंब का वध

गंगा पार करके पांडव दक्षिण की ओर बढ़ते रहे तथा घने जंगल में पहुँच गए। थकान और भूख-प्यास से सभी का बुरा हाल था। भीम सबको एक वट-वृक्ष के नीचे बैठाकर पानी की तलाश में इधर-उधर देखने लगे। पेड़ पर चढ़कर उन्होंने पास ही कुछ पक्षी देखे तथा समझ लिया कि अवश्य ही उधर पानी है। वे उसी तरफ गए तथा एक जलाशय के किनारे पहुँच गएजहाँ उन्होंने अपनी प्यास बुझाई तथा स्नान किया। वे माता और भाइयों के लिए भी पानी लाए। थकान होने के कारण वे सब सो गए थे। उस जलाशय के पास हिडिंब नाम का एक राक्षस रहता था। उसकी बहन हिडिंबा का भी उसी के साथ रहती थी। जैसे ही राक्षस को मानव-गंध मिलीउसने अपनी बहन को उन्हें मारकर मांस लाने को भेजा हिडिंबा भीम को देखकर मोहित हो गई। उसने सुंदर युवती का रूप धारण कर लिया तथा बोली कि मेरे भाई ने मुझे तुम्हें मारने के लिए भेजा थापर मैं तुमसे विवाह करना चाहती हूँ। सोए हुए लोगों को जगाओजिससे कि मैं उन्हें अपनी माया से सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दूँ। यदि मेरा भाई यहाँ आ गयातो वह सबको मार डालेगा। वह बड़ा क्रूर तथा बलवान है। भीम ने कहा कि मुझे तुम्हारे भाई से कोई भय नहीं है। तभी वहाँ हिडिंब आ गया। जब उसने अपनी बहन को सुंदर युवती के रूप में भीम से बात करते देखा तो अत्यंत क्रुद्ध हो गया। पहले वह हिडिंबा को ही मारने दौड़ा। भीम ने उसे बीच में ही पकड़ लिया। दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। शोर सुनकर पांडव तथा माता कुंती जाग गईं। तभी भीम ने हिडिंब को पटक दियातथा उसके प्राण निकल गए। माता कुंती ने युधिष्ठिर की सलाह पर भीम को हिडिंबा से विवाह करने की अनुमति दे दी। समय पर उसे एक पुत्र प्राप्त हुआ। जिसका नाम घटोत्कच रखा गया। वह बहुत पराक्रमी योद्धा हुआ। जब भीम अपनी माता और भाइयों के साथ उस वन को छोड़कर आगे जाने की तैयारी करने लगे तो घटोत्कच ने भीम से कहा कि, 'पिताजी जब भी ज़रूरत होमुझे याद कीजिएगा। मैं आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा।'

बकासुर-संहार

वन-मार्ग पर चलते-चलते एक दिन पांडवों की भेंट महर्षि व्यास से हुई। महर्षि व्यास ने पांडवों को ढाँढ़स बँधाया तथा उन्हीं की सलाह पर पांडव ब्रह्मचारियों का वेश धारण कर एकचक्रा नामक नगरी में एक ब्राह्मण के घर रहने लगे। पाँचों भाई भिक्षा माँगकर लाते तथा उसी को बाँटकर अपना पेट भरते। एक दिन भीम घर पर रह गए। तभी कुंती ने अपने आश्रयदाता ब्राह्मण के घर रोने की आवाज़ सुनी। पूछने पर पता चला कि बक नाम का एक राक्षस नगर के पास ही गुफ़ा में रहता हैजो लोगों को जहाँ भी देखतामारकर खा जाता था। नगरवासियों ने उससे तंग आकर एक समझौता कर लिया कि हर सप्ताह उसकी गुफ़ा में गाड़ी भरकर मांसमदिरापकवान आदि भेज दिया जाएगा तथा गाड़ीवान भी उसी खुराक में शामिल होगा। उस दिन गाड़ीवान के रूप में उस ब्राह्मण को जाना था। वहाँ पहुँचकर वह कभी ज़िंदा वापस नहीं आ सकेगाइसीलिए घर के सभी लोग रो रहे हैं। कुंती ने ब्राह्मण को धीरज बँधाया तथा कहा कि उसकी जगह मेरा पुत्र भीम चला जाएगा तथा बकासुर उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। भीम भोजन तथा पकवान से भरी गाड़ी लेकर राक्षस की गुफ़ा तक पहुँचा तथा उसने उससे अपनी पेट-पूजा शुरू कर दी। बकासुर ने गुफ़ा से देखा कि एक विशाल शरीर वाला मनुष्य उसके भोजन को खा रहा है। वह भीम से भिड़ गया। भीम ने उसे लात-घूँसे मार-मारकर जान से मार डाला तथा उसकी लाश को नगर-द्वार तक ले आए। नगरवासियों की प्रसन्नता की सीमा न रही।

द्रौपदी-स्वयंवर

एकचक्रा नगरी में रहते हुए पांडवों ने पांचाल देश के राजा यज्ञसेन की पुत्री द्रौपदी के स्वयंवर का समाचार सुना। तभी वहाँ व्यास भी आ गए। उनकी सलाह माता कुंती को साथ लेकर पांडव स्वयंवर देखने चल पड़े। रास्ते में पांडवों को धौम्य ऋषि मिले। पांडवों ने उन्हें अपना पुरोहित बना लिया। पांचाल राज्य पहुँचकर माता की सलाह से राजधानी के निकट एक कुम्हार के घर में टिक गए। स्वयंवर के दिन राजधानी को सजाया गया था। देश-देश के राजा उसमें भाग लेने आए थे। हस्तिनापुर से कर्णदुर्योधनदुशासन भी आए थे। स्वयंवर-भूमि के मध्य भाग में आकाश में एक मछली स्थिर थी। उसके नीचे एक चक्र बराबर घूम रहा था। नीचे पानी में मछली की परछाई को देखकरजो उसकी आँख बेध सकेवही द्रौपदी से विवाह कर सकता था।

मत्स्य-भेदन

एक-एक करके अनेक राजाओं ने प्रयास कियापर कोई भी मछली की आँख को नहीं वेध सका। कर्ण निशाना साधने चलापर सूतपुत्र कहे जाने के कारण उसे बैठ जाना पड़ा। अंत में ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने एक तीर से मछली की आँख वेध दी। उपस्थित राजाओं की शंका पर अर्जुन ने दूसरी बार निशाना लगाकर मछली को ही नीचे गिरा दिया। द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला पहना दी। कुछ राजाओं ने ब्राह्मण वेशधारी से द्रौपदी को छीनने का प्रयास कियापर जब भीम एक विशाल पेड़ उखाड़कर ले आए तो उनका साहस टूट गया। जब द्रौपदी तथा धृष्टद्युम्न को पता चला उसने अर्जुन का वरण कियातो उसकी प्रसन्नता की सीमा न रही। घर पहुँचकर अर्जुन ने बाहर से ही माँ को बताया कि देखो कितनी अच्छी चीज़ लाया हूँतो भीतर से ही माता कुंती ने उत्तर दिया कि जो लाए होपाँचों भाई बाँट लो। माता कुंती ने जैसे ही बाहर आकर देखा तो असमंजस में पड़ गईपर अर्जुन ने कहा कि माँतुम्हारा वचन मिथ्या नहीं होगा। तथा द्रौपदी से पाँचों भाइयों का विवाह होगा। जब द्रुपद ने सुना कि द्रौपदी का विवाह पाँचों पांडवों से होगातो बड़े चिंतित हुए। उसी समय महर्षि व्यास आ गए तथा उन्होंने द्रौपदी के पूर्व जन्म की कथा सुनाकर बताया कि उसे शंकर से पाँच पतियों का वरदान मिला है। इस प्रकार द्रौपदी से पाँचों पांडवों का विवाह हो गया।

पांडवों की हस्तिनापुर वापसी और इंदप्रस्थ की स्थापना

पांडवों के लाक्षागृह से बच निकलने तथा द्रौपदी के विवाह का समाचार चारों ओर फैल गया। धृतराष्ट्र इस समाचार से प्रसन्न नहीं थेपर बाहरी प्रसन्नता प्रकट कर रहे थे। भीष्म और द्रोणाचार्य ने पांडवों को वापस बुलाने का मत प्रकट किया। यद्यपि दुर्योधन और कर्ण ने इसका विरोध कियापर विदुर की सलाह पर धृतराष्ट्र ने उन्हीं को उन्हीं को पांडवों को लाने पांचाल भेजा। पांडवों की वापसी पर नगर-निवासियों ने बड़े हर्ष से उनका स्वागत किया। धृतराष्ट्र ने उन्हें आधा राज्य देकर सलाह दी कि कलह से बचने के लिए हस्तिनापुर छोड़कर खांडवप्रस्थ को अपनी राजधानी बना लें। धृतराष्ट्र की आज्ञा मानकर युधिष्ठिर सपरिवार खांडवप्रस्थ आ गए तथा वहाँ उन्होंने नई राजधानी बसाई जिसका नाम इंद्रप्रस्थ रखा। तेरह वर्ष तक सुखपूर्वक उन्होंने राज्य किया।

अर्जुन का वनवास

एक दिन इंद्रप्रस्थ में नारद मुनि आए तथा द्रौपदी को सलाह दी कि वह पाँचों पांडवों के साथ रहने का नियम बना ले कि वह हर एक के साथ एक-एक मास रहेगी। जिससे भी यह नियम भंग होउसे घर छोड़कर बारह वर्ष का वनवास करना होगा। पांडव इस नियम का पालन करने लगे।

एक दिन अर्जुन राजभवन के द्वार पर बैठे थेतभी एक ब्राह्मण रोता हुआ आया और उसने बताया कि चोर उसकी गाएँ चुरा ले गए हैं। अर्जुन उस समय निरस्त्र थे। उनके अस्त्र घर में थेजहाँ युधिष्ठिर द्रौपदी के साथ थे। अर्जुन धर्म-संकट में पड़ गए। यदि हथियार लेने घर में जाते हैंतो बारह वर्ष का वनवास होगा और यदि गायों को नहीं छुड़ाते तो ब्राह्मण से शाप मिलेगा। अंत में वे सिर झुकाकर घर में गए तथा अस्त्र ले आए। उन्होंने ब्राह्मण की गायें छुड़ाकर ब्राह्मण को दे दी। अर्जुन ने युधिष्ठिर से बारह वर्ष के वनवास की आज्ञा माँगी। युधिष्ठिर ने बहुत समझायापर अर्जुनमाता कुंती तथा भाइयों से मिलकर बारह वर्ष के वनवास के लिए निकल पड़े।

नागकन्या उलूपी से अर्जुन का विवाह

देश-देश में घूमते हुए अर्जुन हरिद्वार पहुँचे। गंगा में स्नान करते समय नागराज कैरव्य की कन्या उलूपी अर्जुन पर मोहित हो गई। वह अर्जुन को पाताल लोक ले गई तथा उनसे विवाह किया। उलूपी ने अर्जुन को वरदान दिया कि आप जल में भी स्थल की तरह चल सकेंगे।

चित्रांगदा से अर्जुन का विवाह

नागलोक से ऊपर आकर अर्जुन अनेक तीर्थों का भ्रमण करते हुए मणिपुर पहुँचेजहाँ की राजकन्या चित्रांगदा अत्यंत रूपवती थी। अर्जुन ने चित्रांगदा से विवाह किया। तीन वर्ष तक अर्जुन मणिपुर में चित्रांगदा के साथ रहे तथा उन्हें बभ्रुवाहन नाम का एक पुत्र भी प्राप्त हुआ।

सुभद्रा से अर्जुन का विवाह

मणिपुर से पंचतीर्थ होते हुए अर्जुन प्रभास तीर्थ पहुँचे। यह तीर्थ कृष्ण के राज्य में था। कृष्ण ने अर्जुन का स्वागत किया। यहाँ रहते हुए बलराम की बहन सुभद्रा के प्रति अर्जुन के मन में प्रेम पैदा हो गया। कृष्ण को जब इसका पता चला तो उन्होंने अर्जुन से कहा कि तुम सुभद्रा का हरण कर लो क्योंकि यादवों से युद्ध में विजय प्राप्त करके ही तुम सुभद्रा से विवाह कर सकते हो। अर्जुन ने सुभद्रा का हरण कर लिया। यादवों ने अर्जुन का पीछा किया तथा घोर युद्ध छिड़ गया। अर्जुन के सामने यादवों की एक न चली। श्रीकृष्ण ने यादवों को समझा-बुझाकर युद्ध बंद करा दिया। सुभद्रा को लेकर अर्जुन पुष्कर तीर्थ में बहुत दिनों तक रहे। वनवास के दिन पूरे होने के बाद वे सुभद्रा के साथ इंद्रप्रस्थ पहुँचे तो माता कुंती तथा सभी पांडवों की प्रसन्नता की सीमा न रही। अर्जुन को सुभद्रा से अभिमन्यु तथा द्रौपदी से पांडवों को पाँच पुत्र प्राप्त हुए

खांडव-दाह



एक दिन अर्जुन और श्रीकृष्ण कुछ बातचीत कर रहे थेतभी अग्निदेव ब्राह्मण के वेश में उनके सामने आए। अग्निदेव को अजीर्ण का रोग हो गया थाजिसकी केवल एक ही दवा थी कि खांडव वन के जीव उन्हें जलाने को मिलें। इसी वन में इंद्र का मित्र तक्षक सर्प भी रहता था। अग्निदेव देव जब भी खांडव वन जलाने की कोशिश करतेइंद्र वर्षा करा देते। अग्निदेव ने अर्जुन से सहायता माँगी। अर्जुन ने कहा कि मैं सहायता करने को तैयार हूँपर मेरे पास इंद्र का सामना करने के लिए उपयुक्त शस्त्र नहीं हैं। अग्निदेव ने अर्जुन को 'गांडीवनाम का विशाल धनुष, 'अक्षय तूणीरतथा 'नंदिघोषनाम का विशाल रथ दिया। अर्जुन के संकेत पर अग्निदेव ने खांडव वन को जलाना शुरू कर दिया। इंद्र ने आग बुझाने के लिए बादलों को उड़ा दिया। तब इंद्र स्वयं अर्जुन से युद्ध करने आए। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। इंद्र अर्जुन की वीरता पर बहुत प्रसन्न हुए। अर्जुन ने इंद्र से कहा कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे दिव्यास्त्र दीजिए। इंद्र ने कहा कि दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए तुम्हें शंकर की आराधना करनी पड़ेगी। खांडव वन में केवल कुछ ही प्राणी बचे थेजिनमें एक मय दानव भी थाजो कुशल शिल्पी था। अर्जुन ने उसे मित्र बना लिया। मय दानव ने कहा कि आपसे प्राण-रक्षा के बदले में मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ। अर्जुन ने मय दानव से युधिष्ठिर के लिए इंद्रप्रस्थ में अनुपम सभा-भवन का निर्माण करने को कहाजिसे मय दानव ने सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया।

सभापर्व की प्रमुख घटनाएँ

सभापर्व में मयासुर द्वारा युधिष्ठिर के लिए सभाभवन का निर्माणलोकपालों की भिन्न-भिन्न सभाओं का वर्णनयुधिष्ठिर द्वारा राजसूय करने का संकल्प करनाजरासन्ध का वृत्तान्त तथा उसका वधराजसूय के लिए अर्जुन आदि चार पाण्डवों की दिग्विजय यात्राराजसूय यज्ञशिशुपालवधद्युतक्रीडायुधिष्ठिर की द्यूत में हार और पाण्डवों का वनगमन वर्णित है।



सभा-भवन का निर्माण


मय दानव सभा-भवन के निर्माण में लग गया। शुभ मुहूर्त में सभा-भवन की नींव डाली गई तथा धीरे-धीरे सभा-भवन बनकर तैयार हो गया जो स्फटिक शिलाओं से बना हुआ था। यह भवन शीशमहल-सा चमक रहा था। इसी भवन में महाराज युधिष्ठिर राजसिंहासन पर आसीन हुए।

राजसूय यज्ञ

कुछ समय बाद महर्षि नारद सभा-भवन में पधारे। उन्होंने युधिष्ठिर को राजसूय यज्ञ करने की सलाह दी। युधिष्ठिर ने कृष्ण को बुलवाया तथा राजसूय यज्ञ के बारे में पूछा।

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जरासंध-वध

श्रीकृष्ण ने कहा कि राजसूय-यज्ञ में सबसे बड़ी बाधा मगध नरेश जरासंध हैक्योंकि उसने अनेक राजाओं को बंदी बना रखा है तथा वह बड़ा ही निर्दयी है। जरासंध को परास्त करने के उद्देश्य से कृष्णअर्जुन और भीम को साथ लेकरब्राह्मण के वेश में सीधे जरासंध की सभा में पहुँच गए। जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर सत्कार कियापर भीम ने उन्हें द्वंद्व-युद्ध के लिए ललकारा। भीम और जरासंध तेरह दिन तक लड़ते रहे। चौदहवें दिन जरासंध कुछ थका दिखाई दियातभी भीम ने उसे पकड़कर उसके शरीर को चीरकर फेंक दिया। श्रीकृष्ण ने जरासंध के कारागार से सभी बंदी राजाओं को मुक्त कर दिया तथा युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में शामिल होने का निमंत्रण दिया और जरासंध के पुत्र सहदेव को मगध की राजगदद्दी पर बिठाया।

भीमअर्जुननकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गए तथा सभी राजाओं को युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करने के लिए विवश किया। देश-देश के राजा यज्ञ में शामिल होने आए। भीष्म और द्रोण को यज्ञ का कार्य-विधि का निरीक्षण करने तथा दुर्योधन को राजाओं के उपहार स्वीकार करने का कार्य सौंपा गया। श्रीकृष्ण ने स्वयं ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वीकार किया।

शिशुपाल-वध

यज्ञ में सबसे पहले किसकी पूजा की जाएकिसका सत्कार किया जाएइस पर भीष्म ने श्रीकृष्ण का नाम सुझाया। सहदेव श्रीकृष्ण के पैर धोने लगा। चेदिराज शिशुपाल से यह देखा न गया तथा वह भीष्म और कृष्ण को अपशब्द कहने लगा। कृष्ण शांत भाव से उसकी गालियाँ सुनते रहे। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कृष्ण ने अपनी बुआ को वचन दिया था कि वे शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करेंगे। जब शिशुपाल सौ गालियाँ दे चुका तो श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया तथा शिशुपाल का सिर कटकर ज़मीन पर गिर गया। शिशुपाल के पुत्र को चेदि राज्य की गद्दी सौंप दी गई। युधिष्ठिर का यज्ञ संपूर्ण हुआ।

दुर्योधन शकुनि के साथ युधिष्ठिर के अद्भुत सभा-भवन को देख रहा था। वह एक ऐसे स्थान पर पहुँचा जहाँ स्थल भी जलमय लगता था। दुर्योधन अपने कपड़े समेटने लगा। द्रौपदी को यह देखकर हँसी आ गई। कुछ दूरी पर पारदर्शी शीशा लगा हुआ था। दुर्योधन का सिर आईने से टकरा गया। वहाँ खड़े भीम को यह देखकर हँसी आ गई। कुछ दूर आगे जल भरा थापर दुर्योधन ने फर्श समझा और चलता गया। उसके कपड़े भीग गए। सभी लोग हँस पड़े। दुर्योधन अपने अपमान पर जल-भुन गया तथा दुर्योधन से विदा माँगकर हस्तिनापुर आ गया।

द्युतक्रीड़ा (जुआ खेलना)

दुर्योधन पांडवों से अपने अपमान का बदला लेना चाहता था। शकुनि ने दुर्योधन को समझाया कि पांडवों से सीधे युद्ध में जीत पाना कठिन हैअतः छल-बल से ही उन पर विजय पाई जा सकती है। शकुनि के कहने पर हस्तिनापुर में भी एक सभा-भवन बनवाया गया तथा युधिष्ठिर को जुआ खेलने के लिए बुलाया गया। दुर्योधन की ओर से शकुनि ने ओर पासा फेंका। शकुनि जुआ खेलने में बहुत निपुण था। युधिष्ठिर पहले रत्नफिर सोनाचाँदीघोड़ेरथनौकर-चाकरसारी सेनाअपना राज्य तथा फिर अपने चारों भाइयों को हार गयाअब मेरे पास दाँव पर लगाने के लिए कुछ नहीं है। शकुनि ने कहा अभी तुम्हारे पास तुम्हारी पत्नी द्रौपदी है। यदि तुम इस बार जीत गए तो अब तक जो भी कुछ हारे होवह वापस हो जाएगा। युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दाँव पर लगा दिया और वह द्रौपदी को भी हार गया।

द्रौपदी का अपमान

कौरवों की खुशी का ठिकाना न रहा। दुर्योधन के कहने पर दुशासन द्रौपदी के बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभा-भवन में ले आया। दुर्योधन ने कहा कि द्रौपदी अब हमारी दासी है। भीम द्रौपदी का अपमान न सह सका। उसने प्रतिज्ञा की कि दुशासन ने जिन हाथों से द्रौपदी के बाल खींचे हैंमैं उन्हें उखाड़ फेंकूँगा। दुर्योधन अपनी जाँघ पर थपकियाँ देकर द्रौपदी को उस पर बैठने का इशारा करने लगा। भीम ने दुर्योधन की जाँघ तोड़ने की भी प्रतिज्ञा की। दुर्योधन के कहने पर दुशासन द्रौपदी के वस्त्र उतारने लगा। द्रौपदी को संकट की घड़ी में कृष्ण की याद आई। उसने श्रीकृष्ण से अपनी लाज बचाने की प्रार्थना की। सभा में एक चमत्कार हुआ। दुशासन जैसे-जैसे द्रौपदी का वस्त्र खींचता जाता वैसे-वैसे वस्त्र भी बढ़ता जाता। वस्त्र खींचते-खींचते दुशासन थककर बैठ गया। भीम ने प्रतिज्ञा की कि जब तक दुशासन की छाती चीरकर उसके गरम ख़ून से अपनी प्यास नहीं बुझाऊँगा तब तक इस संसार को छोड़कर पितृलोक को नहीं जाऊँगा। अंधे धृतराष्ट्र बैठे-बैठे सोच रहे थे कि जो कुछ हुआवह उनके कुल के संहार का कारण बनेगा। उन्होंने द्रौपदी को बुलाकर सांत्वना दी। युधिष्ठिर से दुर्योधन की धृष्टता को भूल जाने को कहा तथा उनका सब कुछ वापस कर दिया।

पुनः द्यूतक्रीड़ा तथा पांडवों को तेरह वर्ष का वनवास


दुर्योधन ने पांडवों को दोबारा जुआ खेलने के लिए बुलाया तथा इस बार शर्त रखी कि जो जुए में हारेगावह अपने भाइयों के साथ तेरह वर्ष वन में बिताएगा जिसमें अंतिम वर्ष अज्ञातवास होगा। इस बार भी दुर्योधन की ओर से शकुनि ने पासा फेंका तथा युधिष्ठिर को हरा दिया। शर्त के अनुसार युधिष्ठिर तेरह वर्ष वनवास जाने के लिए विवश हुए और राज्य भी उनके हाथ से जाता रहा।

महाभारत के वन पर्व  कई अद्भुत कथाएं और प्रसंग हैं जिनमे निम्न कुछ प्रमुख कथाएं हैं :

पाण्डवों का वनवास, भीमसेन द्वारा किर्मीर का वध, वन में श्रीकृष्ण का पाण्डवों से मिलना, शाल्यवधोपाख्यान, पाण्डवों का द्वैतवन में जाना, द्रौपदी और भीम द्वारा युधिष्ठिर को उत्साहित करना, इन्द्रकीलपर्वत पर अर्जुन की तपस्या, अर्जुन का किरातवेशधारी शंकर से युद्ध, पाशुपतास्त्र की प्राप्ति, अर्जुन का इन्द्रलोक में जाना, नल-दमयन्ती-आख्यान, नाना तीर्थों की महिमा और युधिष्ठिर की तीर्थयात्रा,सौगन्धिक कमल-आहरण, जटासुर-वध, यक्षों से युद्ध, पाण्डवों की अर्जुन विषयक चिन्ता, निवातकवचों के साथ अर्जुन का युद्ध और निवातकवचसंहार,


अजगररूपधारी नहुष द्वारा भीम को पकड़ना, युधिष्टिर से वार्तालाप के कारण नहुष की सर्पयोनि से मुक्ति, पाण्डवों का काम्यकवन में निवास और मार्कण्डेय ऋषि से संवाद, द्रौपदी का सत्यभामा से संवाद, घोषयात्रा के बहाने दुर्योधन आदि का द्वैतवन में जाना, गन्धर्वों द्वारा कौरवों से युद्ध करके उन्हें पराजित कर बन्दी बनाना, पाण्डवों द्वारा गन्धर्वों को हटाकर दुर्योधनादि को छुड़ाना, दुर्योधन की ग्लानी, जयद्रथ द्वारा द्रौपदी का हरण, भीम द्वारा जयद्रथ को बन्दी बनाना और युधिष्ठिर द्वारा छुड़ा देना, रामोपाख्यान, पतिव्रता की महिमा, सावित्री सत्यवान की कथा, दुर्वासा की कुन्ती द्वारा सेवा और उनसे वर प्राप्ति, इन्द्र द्वारा कर्ण से कवच-कुण्डल लेना, यक्ष-युधिष्ठिर-संवाद और अन्त में अज्ञातवास के लिए परामर्श का वर्णन है।


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पांडवों का वनवास


जुए की शर्त के अनुसार युधिष्ठिर को अपने भाइयों के साथ बारह वर्ष का वनवास तथा एक वर्ष का अज्ञातवास बिताना था। युधिष्ठिर ने माता कुंती को विदुर के घर पहुँचा दिया तथा सुभद्रा अपने पुत्र अभिमन्यु और द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को लेकर अपने मायके चली गई। पांडव द्रौपदी तथा अपने पुरोहित धौम्य के साथ वन को चल दिए। अनेक ब्राह्मण उनके साथ चल दिए। ब्राह्मणों को साथ देखकर पुरोहित धौम्य की सलाह पर युधिष्ठिर ने सूर्य की उपासना की और सूर्यदेव ने उन्हें एक अक्षयपात्र दिया जिसका भोजन कभी समाप्त नहीं होगा। उस अक्षयपात्र द्रौपदी ब्राह्मणों को तथा पांडवों को भोजन खिलाती तथा अंत में खुद खाती। इस बीच विदुर द्वारा पांडवों की प्रशंसा करने पर धृतराष्ट्र ने विदुर को निकाल दिया, पर कुछ ही दिनों में विदुर की याद आने पर कुछ ही दिनों में विदुर को बुला लिया। पांडव वन में अपना जीवन बिताने लगे। वन में ही व्यासजी पांडवों से मिले तथा सलाह दी कि वन रहकर दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त करो। उन्होंने अर्जुन को सलाह दी कि कैलाश पर्वत पर जाकर भगवान पशुपति से दिव्यास्त्र तथा इंद्र से अमोघ अस्त्र भी प्राप्त करें।

अर्जुन की तपस्या तथा दिव्यास्त्र की प्राप्ति

महर्षि व्यास की सलाह पर अर्जुन कैलाश जा पहुँचे। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक जटाधारी वृद्ध तपस्वी बैठा है। तपस्वी ने अर्जुन से कहा कि यह तपोभूमि है, यहाँ कोई अस्त्र लेकर नहीं चलता। अर्जुन ने विनम्र भाव से कहा में क्षत्रिय हूँ। तपस्वी के रूप में वे इंद्र थे। उन्होंने अर्जुन से वर माँगने को कहा। अर्जुन ने इंद्र से दिव्यास्त्र माँगा। इंद्र ने बताया कि पहले तुम भगवान शंकर से पाशुपत अस्त्र प्राप्त करों, फिर अन्य देवता भी तुम्हें दिव्यास्त्र देंगे। अर्जुन ने तपस्या शुरू की तथा पाँच महीने बीत गये। एक दिन एक जंगली सुअर वन से आ निकला। अर्जुन ने जैसे ही उस पर बाण चलाने की सोची तो देखा कि एक शिकारी भी उस सूअर पर बाण चलाने को तैयार है। दोनों के बाण एक साथ सूअर को लगे। अर्जुन ने व्याध से कहा कि जब मैंने उस पर बाण चला दिया था, तो तुमने उस पर बाण क्यों चलाया। व्याध हँस पड़ा और बोला कि उसे तो मैंने पहले ही निशाना बना लिया था। अर्जुन को व्याध पर क्रोध आ गया तथा उसने व्याध पर तीर चला दिया। पर व्याध पर बाणों का कुछ असर न हुआ। अर्जुन ने धनुष फेंककर तलवार से आक्रमण किया, पर व्याध के शरीर से टकराकर तलवार भी टूट गई। अर्जुन व्याध से मल्ल युद्ध करने लगे, पर थक जाने पर अचेत होकर गिर पड़े।

अर्जुन ने सोचा कि पहले इष्टदेव की पूजाकर लूँ फिर व्याध से लडूँगा। व्याध ने भी अर्जुन से कहा-ठीक है, पूजा करके शक्ति बढ़ा लो। अर्जुन ने पूजा करके जैसे ही शिव की मूर्ति पर माला चढ़ाई तो देखा कि वह माला व्याध के गले में पड़ी है। अर्जुन को समझने में देर नहीं लगी कि व्याध के रूप में भगवान शंकर ही खड़े हैं। शंकर ने प्रसन्न होकर अर्जुन को पाशुपत अस्त्र दे दिया और बताया कि मनुष्यों पर इसका प्रयोग वर्जित है।

अर्जुन की इंद्रलोक-यात्रा

रास्ते में अर्जुन को इंद्र के सारथी मालति रथ लेकर प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। मालति ने अर्जुन को बताया कि इंद्र ने तुम्हें बुलाया है। वहाँ चलिए और असुरों का संहार कीजिए। इंद्रलोक में सभी देवताओं ने अर्जुन का स्वागत किया तथा अपने दिव्य अस्त्रों की शिक्षा दी। अर्जुन ने असुरों का संहार किया। एक रात अर्जुन अपने भाइयों और द्रौपदी के बारे में सोच रहे थे कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी उनके पास आकर बैठ गई। अर्जुन ने उर्वशी को माता कहकर संबोधित किया क्योंकि वे उनके गुरु इंद्र की अप्सरा हैं। मैं यहाँ शस्त्र तथा नृत्य-संगीत की शिक्षा के लिए आया हूँ। विद्यार्थी का धर्म भोग नहीं है। उर्वशी ने अपने प्रयोजन में असफल रहने का कारण, अर्जुन को एक वर्ष तक निर्वीर्य रहने का शाप दिया, पर कहा कि यह शाप तुम्हारे लिए वरदान सिद्ध होगा। एक वर्ष के अज्ञातवास में तुम नपुंसक के रूप में अपने को छिपा सकोगे। अनेक वर्षों तक अर्जुन का समाचार न मिलने पर पांडव चिंतित रहने लगे। तभी नारद ने आकर उन्हें बताया कि वे शीघ्र ही महर्षि लोमश के साथ आकर मुझसे मिलेंगे। तब तक आप देश-भ्रमण तथा तीर्थ-दर्शन कर लीजिए। कुछ दिनों बाद लोमश ऋषि ने आकर अर्जुन का समाचार सुनाया। लोमश ऋषि के साथ पांडव तीर्थों के दर्शन करने चल दिए। उन्होंने प्रयास, वेदतीर्थ, गया, गंगासागर तथा प्रभास तीर्थ के दर्शन किए। प्रभास तीर्थ से वे सिंधु तीर्थ होकर कश्मीर पहुँचे, यहाँ से वे हिमालय के सुबाहु राज्य में पहुँचे। यहाँ से वे बदरिका आश्रम भी गए।

भीम की हनुमान से भेंट

एक दिन सहस्त्र दलों वाला एक कमल हवा से उड़कर द्रौपदी के पास आ गिरा। उसने भीम से ऐसे ही पुष्प लाने को कहा। भीम पुष्प की तलाश में आगे बढ़ते गए। रास्ते में एक-सा बंदर लेटा हुआ था। भीम ने गरजकर उसे रास्ता छोड़ने को कहा, पर बंदर ने कहाअ कि मैं बुड्ढा हूँ। तुम्हीं मेरी पूँछ उठाकर एक ओर रख दो। भीम ने पूँछ उठाने की बहुत कोशिश की, पर भीम से उसकी पूँछ हिली भी नहीं। भीम हाथ जोड़कर उस बंदर के आगे आ खड़े हुए। बूढ़े बंदर कहा कि मैं राम का दास हनुमान हूँ। तुम मेरे छोटे भाई हो। भीम ने हनुमान से माफी माँगी और प्रार्थना की कि आप मेरे भाई अर्जुन के नंदिघोष रथ की ध्वजा पर बैठकर महाभारत का युद्ध देखिए। हनुमान ने भीम की यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। हनुमान ने भीम को कमल सरोवर का पता भी बताया। सरोवर पर पहुँचकर भीम ने फूल तोड़ने शुरू कर दिए तो सरोवर के राक्षस यक्षों ने उन्हें रोका। भीम राक्षसों को मारने लगे। जब सरोवर के स्वामी कुबेर को पता चला कि पांडव यहाँ आए हैं, तो प्रसन्नता से वहाँ के फूल-फूल पांडवों के पास भेजे। यहीं रहकर पांडव अर्जुन की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ समय बाद आकाश से एक रथ आया तथा अर्जुन उसमें से उतरे। पांडवों तथा द्रौपदी की प्रसन्नता की सीमा न रही।

दुर्योधन आदि का गर्व हरण

वन में पांडवों को नीचा दिखाने के लिए दुर्योधन ने एक योजना बनाई। कर्ण, शकुनि आदि के साथ अपनी रानियों को लेकर वह वन पहुँचा। एक दिन दुर्योधन की इच्छा रानियों को लेकर सरोवर में स्नान करने की हुई। सरोवर के तट पर गंधर्वों का राजा चित्रसेन ठहरा हुआ था। दुर्योधन ने उस ओर की ज़मीन साफकरने के लिए अपने आदमियों को भेजा, जिन्हें चित्रसेन धमकाकर भगा दिया। दुर्योधन ने सैनिक भेजे, पर चित्रसेन ने उन्हें भी भगा दिया। कर्ण और शकुनि को साथ लेकर दुर्योधन गंधर्वों के सामने आ डटा। चित्रसेन उस समय स्नान कर रहा था। उसने कौरव-सेना पर बाण-वर्षा शुरू कर दी। फिर सम्मोहन अस्त्र का प्रयोग किया, कर्ण का रथ काट दिया, दुर्योधन को पाश में बाँध दिया और कौरवों की रानियों को कैद करके स्वर्ग ले चला। रानियों ने भीम, अर्जुन तथा युधिष्ठिर को सहायता के लिए पुकारा। इसी समय दुर्योधन के मंत्री ने भी आकर युधिष्ठिर से कौरवों की विपत्ति का वर्णन किया तथा सहायता की प्रार्थना की। भीम तो प्रसन्न थे, पर युधिष्ठिर ने कहा कि यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है। उन्हीं के कहने पर भीम और अर्जुन चित्रसेन से भिड़ गए तथा महाकर्षण अस्त्र द्वारा चित्रसेन को आकाश से नीचे उतरने पर विवश किया। भीम ने महिलाओं के साथ दुर्योधन को रथ से उतार लिया। चित्रसेन और अर्जुन मित्रवत मिले। दुर्योधन बहुत लज्जित था। उसने धर्मराज को प्रणाम किया तथा अपनी राजधानी लौट आया।

वन पर्व के अन्तर्गत 22 (उप) पर्व और 315 अध्याय हैं। इन 22 पर्वों के नाम हैं- अरण्य पर्व, किर्मीरवध पर्व, अर्जुनाभिगमन पर्व, कैरात पर्व, इन्द्रलोकाभिगमन पर्व, नलोपाख्यान पर्व, तीर्थयात्रा पर्व, जटासुरवध पर्व, यक्षयुद्ध पर्व, निवातकवचयुद्ध पर्व, अजगर पर्व, मार्कण्डेयसमस्या पर्व, द्रौपदीसत्यभामा पर्व, घोषयात्रा पर्व, मृगस्वप्नोद्भव पर्व, ब्रीहिद्रौणिक पर्व, द्रौपदीहरण पर्व, जयद्रथविमोक्ष पर्व, रामोपाख्यान पर्व, पतिव्रतामाहात्म्य पर्व, कुण्डलाहरण पर्व, आरणेय पर्व।


विराट पर्व में अज्ञातवास की अवधि में विराट नगर में रहने के लिए गुप्तमन्त्रणा, धौम्य द्वारा उचित आचरण का निर्देश, युधिष्ठिर द्वारा भावी कार्यक्रम का निर्देश, विभिन्न नाम और रूप से विराट के यहाँ निवास, भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल तथा कीचक और उपकीचकों का वध, दुर्योधन के गुप्तचरों द्वारा पाण्डवों की खोज तथा लौटकर कीचकवध की जानकारी देना, त्रिगर्तों और कौरवों द्वारा मत्स्य देश पर आक्रमण, कौरवों द्वारा विराट की गायों का हरण, पाण्डवों का कौरव-सेना से युद्ध, अर्जुन द्वारा विशेष रूप से युद्ध और कौरवों की पराजय, अर्जुन और कुमार उत्तर का लौटकर विराट की सभा में आना, विराट का युधिष्ठिरादि पाण्डवों से परिचय तथा अर्जुन द्वारा उत्तरा को पुत्रवधू के रूप में स्वीकार करना वर्णित है।

महाभारत की सम्पूर्ण कथा पढ़ें :

पांडवों का अज्ञातवास 

राजा विराट के यहाँ आश्रय पांडवों को बारह वर्ष के वनवास की अवधि की समाप्ति कर एक वर्ष अज्ञातवास करना था। वे विराट नगर के लिए चल दिए। विराट नगर के पास पहुँचकर वे सभी एक पेड़ के नीचे बैठ गए। युधिष्ठिर ने बताया कि मैं राजा विराट के यहाँ 'कंक' नाम धारण कर ब्राह्मण के वेश में आश्रय लूँगा। उन्होंने भीम से कहा कि तुम 'वल्लभ' नाम से विराट के यहाँ रसोईए का काम माँग लेना, अर्जुन से उन्होंने कहा कि तुम 'बृहन्नला' नाम धारण कर स्त्री भूषणों से सुसज्जित होकर विराट की राजकुमारी को संगीत और नृत्य की शिक्षा देने की प्रार्थना करना तथा नकुल 'ग्रंथिक' नाम से घोड़ों की रखवाली करने का तथा सहदेव 'तंत्रिपाल' नाम से चरवाहे का काम करना माँग ले।

सभी पांडवों ने अपने-अपने अस्त्र शस्त्र एक शमी के वृक्ष पर छिपा दिए तथा वेश बदल-बदलकर विराट नगर में प्रवेश किया। विराट ने उन सभी की प्रार्थना स्वीकार कर ली। विराट की पत्नी द्रौपदी के रूप पर मुग्ध हो गई तथा उसे भी केश-सज्जा आदि करने के लिए रख लिया। द्रौपदी ने अपना नाम सैरंध्री बताया और कहा कि मैं जूठे बर्तन नहीं छू सकती और न ही जूठा भोजन कर सकती हूँ। कीचक-वध एक दिन विराट की पत्नी सुदेष्णा का भाई कीचक सैरंध्री पर मुग्ध हो गया। उसने अपनी बहन से सैरंध्री के बारे में पूछा। सुदेष्णा ने यह कहकर टाल दिया कि वह महल की एक दासी है। कीचक द्रौपदी के पास जा पहुँचा और बोला, 'तुम मुझे अपना दास बना सकती हो।' द्रौपदी डरकर बोली, 'मैं एक दासी हूँ। मेरा विवाह हो चुका है, मेरे साथ ऐसा व्यवहार मत कीजिए।' कीचक उस समय तो रुक गया पर बार-बार अपनी बहन सैरंध्री के प्रति आकुलता प्रकट करने लगा। कोई चारा न देखकर सुदेष्णा ने कहा कि पर्व के दिन मैं सैरंध्री को तुम्हारे पास भेज दूँगी। पर्व के दिन महारानी ने कुछ चीज़ें लाने के बहाने सैरंध्री को कीचक के पास भेज दिया। सैरंध्री कीचक की बुरी नीयत देखकर भाग खड़ी हुई। एक दिन एकांत में मौक़ा पाकर उसने भीम से कीचक की बात बताई। भीम ने कहा कि अब जब वह तुमसे कुछ कहे उसे नाट्यशाला में आधी रात को आने का वायदा कर देना तथा मुझे बता देना। सैरंध्री के कीचक से आधी रात को नाट्यशाला में मिलने को कहा। वह आधी रात को नाट्यशाला में पहुँचा, जहाँ स्त्री के वेश में भीम पहले ही उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। भीम ने कीचक को मार दिया।

अगले ही दिन विराट नगर में खबर फैल गई कि सैरंध्री के गंधर्व पति ने कीचक को मार डाला। गोधन-हरण कीचक-वध का समाचार दुर्योधन ने भी सुना तथा अनुमान लगा लिया कि सैरंध्री नाम की दासी द्रौपदी तथा उसके गंधर्व पति पांडव ही हैं। तब तक पांडवों के अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी थी।

त्रिगर्तों और कौरवों द्वारा विराट पर आक्रमण

त्रिगर्त देश का राजा कीचक से कई बार अपमानित हो चुका था। कीचक की मृत्यु का समाचार सुनकर उसके मन में विराट से बदला लेने की बात सूझी। सुशर्मा दुर्योधन का मित्र था। उसने दुर्योधन को सलाह दी कि यदि विराट की गाएँ ले आई जाएँ तो युद्ध के समय दूध की आवश्यकता पूरी हो जाएगी। आप लोग तैयार रहें, मैं विराट पर आक्रमण करने जा रहा हूँ।

उसके जाते ही दुर्योधन ने भी भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, कर्ण, अश्वत्थामा आदि के साथ विराट पर आक्रमण कर दिया। महाराज विराट भी कीचक को याद करके रोने लगे पर कंक (युधिष्ठिर) ने उन्हें धैर्य बँधाया। सुशर्मा ने बात-ही-बात में विराट को बाँध लिया, पर इसी समय कंक ने वल्लभ (भीम) को ललकारा। वल्लभ ने सुशर्मा को बाँधकर कंक के सामने उपस्थित का दिया और विराट के बंधन खोल दिए। इसी समय कौरवों के आक्रमण की सूचना मिली। दुर्योधन ने भीष्म से पूछा कि अज्ञातवास की अवधि पूरी हो चुकी है या नहीं भीष्म ने बताया कि एक हिसाब से तो यह अवधि पूरी हो चुकी है, पर दूसरे हिसाब से अभी कुछ दिन शेष हैं।

विराट भयभीत हो चुके थे, पर वृहन्नला (अर्जुन) के कहने पर उत्तर कुमार युद्ध को तैयार हो गया। वृहन्नला ने अपना असली परिचय दिया और शमी के वृक्ष से अपना गांडीव तथा अक्षय तूणीर उतार लिया तथा भयंकर संग्राम किया। कर्ण के पुत्र को मार डाला, कर्ण को घायल कर दिया, द्रोणाचार्य और भीष्म के धनुष काट दिए तथा सम्मोहन अस्त्र द्वारा कौरव सेना को मूर्च्छित कर दिया। युद्ध के बाद विराट को पांडवों का परिचय प्राप्त हुआ तथा अर्जुन से अपनी पुत्री उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव किया, पर अर्जुन ने कहा कि वे उत्तरा के शिक्षक रह चुके हैं, अतः अपने पुत्र अभिमन्यु से उत्तरा के विवाह का प्रस्ताव किया। धूमधाम से अभिमन्यु और उत्तरा का विवाह हो गया। 

विराट पर्व के अन्तर्गत 5 (उप) पर्व और 72 अध्याय हैं। इन पाँच (उप) पर्वों के नाम हैं- पाण्डवप्रवेश पर्व, समयपालन पर्व, कीचकवध पर्व, गोहरण पर्व, वैवाहिक पर्व।

उद्योग पर्व में विराट की सभा में पाण्डव पक्ष से श्रीकृष्ण, बलराम, सात्यकि का एकत्र होना और युद्ध के लिए द्रुपद की सहायता से पाण्डवों का युद्धसज्जित होना, कौरवों की युद्ध की तैयारी, द्रुपद के पुरोहित ला कौरवों की सभा जाना और सन्देश-कथन, धृतराष्ट्र का पाण्डवों के यहाँ संजय को संदेश देकर भेजना, संजय का युधिष्ठिर से वार्तालाप, धृतराष्ट्र का विदुर से वार्तालाप, सनत्सुजात द्वारा धृतराष्ट्र को उपदेश, धृतराष्ट्र की सभा में लौटे हुए संजय तथा पाण्डवों का सन्देश-कथन, युधिष्ठिर के सेनाबल का वर्णन, संजय द्वारा धृतराष्ट्र को और धृतराष्ट्र द्वारा दुर्योधन को समझाना, पाण्डवों से परामर्श कर कृष्ण द्वारा शान्ति प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास जाना, दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने का षडयन्त्र करना, गरुड़गालवसंवाद, विदुलोपाख्यान, लौटे हुए श्रीकृष्ण द्वारा कौरवों को दण्ड देने का परामर्श, पाण्डवों और कौरवों द्वारा सैन्यशिविर की स्थापना और सेनापतियों का चयन, दुर्योधन के दूत उलूक द्वारा सन्देश लेकर पाण्डव-सभा में जाना, दोनों पक्षों की सेनाओं का वर्णन, अम्बोपाख्यान, भीष्म-परशुराम का युद्ध आदि विषयों का वर्णन है।

महाभारत की सम्पूर्ण कथा पढ़ें :


पांडवों का अज्ञातवास समाप्त हो गया। वे कौरवों से अपने अपमान का बदला लेने को तैयार थे।अभिमन्यु और उत्तरा के विवाह पर अनेक राजा उपस्थित हुए। श्रीकृष्ण के कहने पर विराट के राज-दरबार में आमंत्रित सभी राजाओं की सभा बुलाई गई श्रीकृष्ण ने सभी को कौरवों के अन्याय की कथा सुनाई तथा पूछा कि पांडव अपने राज प्राप्ति के लिए प्रयत्न करें या कौरवों के अत्याचार सहते रहें। महाराज द्रुपद ने पांडवों का समर्थन किया जबकि बलराम ने उनका विरोध किया। सबकी सहमति से दुर्योधन के पास दूत भेजने का निश्चय किया गया।

युद्ध की तैयारी

पांडव युद्ध की तैयारियाँ करने लगे। वे पांचाल और विराट सेना के साथ कुरुक्षेत्र के पास शिविर लगाकर ठहरे। कौरवों को इसका पता चल गया तथा वे भी विभिन्न राजाओं को अपने पक्ष में करने के लिए निमंत्रण भेजने लगे। यादवों को अपने-अपने पक्ष में करने के लिए दुर्योधन और अर्जुन स्वयं गए। जब वे दोनों श्रीकृष्ण के शयन-कक्ष में पहुँचे तो वे सोए हुए थे। अर्जुन उनके पैरों की ओर तथा दुर्योधन सिर की ओर बैठ गए। आँख खुले पर कृष्ण ने पहले अर्जुन को देखा तथा बाद में दुर्योधन को। उन्होंने दुर्योधन को अपनी नारायणी सेना दी तथा स्वयं अर्जुन के साथ रहने का वायदा किया तथा युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी की। पांडवों के मामा शल्य पांडवों की सहायता के लिए चल पड़े। रास्ते में उनके स्वागत की व्यवस्था दुर्योधन ने की, जिसे देखकर शल्य बहुत प्रसन्न हुए तथा दुर्योधन ने उनको प्रसन्नता के बदले अपने पक्ष में कर लिया। कुरुक्षेत्र में उन्होंने पांडवों को बताया कि वे कौरवों के साथ रहने को वचनबद्ध हो गए हैं। युधिष्ठिर ने शल्य से प्रार्थना की कि यदि वे कर्ण के सारथी बनें तो उसे सदा हतोत्साहित करते रहेंगे। शल्य ने इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया।
दुर्योधन ने शांति प्रस्ताव लेकर आए दूत को कहला भेजा कि वे युद्ध के बिना सुई की नोंक के बराबर भी ज़मीन देने को तैयार नहीं हैं। युधिष्ठिर की सलाह पर श्रीकृष्ण पुनः दुर्योधन के पास शांति प्रस्ताव लेकर गए कि पांडव केवल पाँच गाँवों से ही संतुष्ट हो जाएँगे।

शांति-दूत श्रीकृष्ण

हस्तिनापुर में श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारियाँ होने लगीं। दुर्योधन ने कृष्ण को बाँधकर कैद करने की योजना बनाई। श्रीकृष्ण ने सभा में संधि की बात की। धृतराष्ट्र संधि के पक्ष में थे, पर दुर्योधन नहीं माना। वह श्रीकृष्ण को बाँधने के लिए आदेश देने लगा, पर भीष्म अत्यंत क्रुद्ध हो उठे। दुर्योधन ने कहा कि कृष्ण दूत का काम नहीं कर रहे हैं अपितु पांडवों का पक्ष ले रहे हैं। राज्य के वास्तविक अधिकारी मेरे पिता धृतराष्ट्र थे, पर अंधे होने के कारण पांडु को राज्य सौंपा। पर धृतराष्ट्र का पुत्र मैं तो अंधा नहीं हूँ, अतः मैं ही राज्य का उत्तराधिकारी हूँ। पांडव लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं, हम तो केवल अपनी रक्षा में लगे हैं। कर्ण, दुशासन और शकुनि आदि ने दुर्योधन की बात का समर्थन किया। कृष्ण ने कहा कि वह पांडवों को केवल पाँच गाँव ही दे दें, तो भी युद्ध टल सकता है। पर दुर्योधन इसके लिए भी राजी नहीं हुआ। श्रीकृष्ण दुर्योधन को धिक्कारते हुए सभा-भवन से बाहर निकल गए।

कुंती-कर्ण संवाद

श्रीकृष्ण के कहने से माँ कुंती कर्ण से मिलने गई तथा उसके जन्म की सारी कहानी सुनाई। कुंती ने कर्ण से अपने भाइयों से युद्ध न करने की प्रार्थना की, पर कर्ण राजी न हुए। उन्होंने कुंती से कहा कि मैं केवल अर्जुन से ही पूरी शक्ति से युद्ध करूँगा। हम दोनों में से किसी के मरने पर भी तुम्हारे पाँच पुत्र ही बने रहेंगे। दोनों ओर से युद्ध की तैयारियाँ शुरू होने लगीं।

युद्ध का निश्चय

रात्रि के समय दुर्योधन ने अपने मित्रों से बातचीत करके भीष्म को कौरव सेना का सेनापति बनाया। इस पर कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि भीष्म के युद्ध-क्षेत्र में रहते मैं शस्त्र ग्रहण नहीं करूँगा। भीष्म ने सेनापति का पद स्वीकार कर लिया, पर स्पष्ट किया कि मैं पांडवों का वध नहीं करूँगा, पर पांडव सेना का संहार करता रहूँगा। इसी समय भगवान वेदव्यास धृतराष्ट्र से मिलने आए। धृतराष्ट्र ने वीरों की वीरता सुनने की इच्छा प्रकट की। व्यास ने संजय को दिव्य-दृष्टि प्रदान की तथा धृतराष्ट्र से कहा कि यहाँ बैठे-बैठे वे युद्ध का सारा समाचार जान सकेंगे।
उद्योग पर्व के अन्तर्गत 10 (उप) पर्व हैं और इसमें कुल 196 अध्याय हैं। इन 10 (उप) पर्वों के नाम हैं-
  • सेनोद्योग पर्व,
  • संजययान पर्व,
  • प्रजागर पर्व,
  • सनत्सुजात पर्व,
  • यानसन्धि पर्व,
  • भगवद्-यान पर्व,
  • सैन्यनिर्याण पर्व,
  • उलूकदूतागमन पर्व,
  • रथातिरथसंख्या पर्व,
  • अम्बोपाख्यान पर्व।

भीष्म पर्व में कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए सन्नद्ध दोनों पक्षों की सेनाओं में युद्धसम्बन्धी नियमों का निर्णय, संजय द्वारा धृतराष्ट्र को भूमि का महत्त्व बतलाते हुए जम्बूखण्ड के द्वीपों का वर्णन, शाकद्वीप तथा राहु, सूर्य और चन्द्रमा का प्रमाण, दोनों पक्षों की सेनाओं का आमने-सामने होना, अर्जुन के युद्ध-विषयक विषाद तथा व्याहमोह को दूर करने के लिए उन्हें उपदेश (श्रीमद्भगवद्गीता), उभय पक्ष के योद्धाओं में भीषण युद्ध तथा भीष्म के वध और शरशय्या पर लेटकर प्राणत्याग के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा करने आदि का निरूपण है।
महाभारत की सम्पूर्ण कथा पढ़ें :

युद्ध-भूमि

कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरवों-पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने आ डटीं। कौरवों की सेना के आगे भीष्म थे तथा पांडवों की सेना का संचालन कर रहे थे- अर्जुन। अर्जुन ने जब देखा कि उसे अपने गुरु, पितामह, भाई-बंधु और सगे-संबंधियों से युद्ध करना है तो उसका हृदय काँप उठा। उसने सोचा कि वे ऐसे राज्य को लेकर क्या करेंगे, जो उन्हें अपने प्रियजनों को मारकर प्राप्त होगा।

अर्जुन का मोह और गीता का उपदेश

अर्जुन के मोह तथा भ्रम को दूर करने के लिए श्री कृष्ण ने कर्मयोग का उपदेश दिया, जो श्रीमद्भगवद गीता के रूप में प्रसिद्ध है। उन्होंने कहा कि होनी पहले हो चुकी है, तुम्हें तो केवल क्षत्रिय धर्म के अनुसार चलना है। धर्म पालन के लिए युद्ध करना ही चाहिए। कृष्ण ने अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हुए कहा कि अधर्म के कारण कौरवों का नाश हो चुका है। अर्जुन ने देखा कि समस्त कौरव श्रीकृष्ण के मुख में समा रहे हैं। अर्जुन का मोह दूर हो गया तथा वे युद्ध के लिए तैयार हो गए।

Shrimad Bhagwat Geeta In Hindi ~ सम्पूर्ण श्रीमद्‍भगवद्‍गीता

युद्ध प्रारंभ होने से पूर्व युधिष्ठिर रथ से उतरकर पैदल ही पितामह भीष्म के पास गए तथा उनके चरणस्पर्श करके उन्हें प्रणाम किया। इसी प्रकार युधिष्ठिर ने कृपाचार्य और द्रोणाचार्य को भी प्रणाम किया तथा विजय का आशीर्वाद प्राप्त किया। युधिष्ठिर की धर्म-नीति को देखकर धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्सु इतना प्रभावित हुआ कि कौरन-सेना छोड़कर पांडवों से जा मिला।

पहले दिन का युद्ध

अर्जुन ने युद्ध प्रारंभ किया। देखते-ही देखते घमासान युद्ध छिड़ गया। भीष्म के सामने पांडव-सेना थर्रा उठी। अभिमन्यु ने भीष्म को रोका तथा उनकी ध्वजा को काट दिया। भीष्म पितामह अभिमन्यु के रण-कौशल को देखकर चकित थे। इस दिन के युद्ध में विराट पुत्र उत्तर कुमार को वीरगति प्राप्त हुई। संध्या होते ही युद्ध की समाप्ति की घोषणा की गई। पहले दिन के युद्ध से दुर्योधन बहुत प्रसन्न था। युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा कि आज के युद्ध से पितामह की अजेयता सिद्ध हो गई है। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को ढाँढ़स बँधाया।

दूसरे दिन का युद्ध

दूसरे दिन भीष्म ने नेतृत्व में कौरव-सेना ने पांडवों पर आक्रमण किया, जिससे पांडवों की सेना तितर-बितर हो गई। अर्जुन के कहने पर श्रीकृष्ण उनके रथ को भीष्म के सामने ले गए। अर्जुन और भीष्म में भयंकर युद्ध छिड़ गया। भीष्म साक्षात यमराज की तरह पांडव-सेना को काट रहे थे। भीष्म अर्जुन से लड़ना छोड़ भीम की तरफ भागे। सात्यकि के एक बाण से भीष्म का सारथी घायल होकर गिर पड़ा। उसके गिरते ही रथ के घोड़े भाग खड़े हुए जिससे पांडव सेना में उत्साह का संचार हुआ। संध्या हो गई थी, दोनों ओर के सेनापतियों ने युद्ध बंद होने का शंख बजाया।

तीसरे दिन का युद्ध

तीसरे दिन भी पांडव-सेना के सामने कौरवों की एक न चली। भीम के एक बाण से दुर्योधन अचेत हो गया। दुर्योधन का सारथी उन्हें युद्ध-भूमि से हटा ले गया। कौरवों ने समझा कि दुर्योधन युद्ध-क्षेत्र से भाग खड़े हुए हैं। सैनिकों में भगदड़ मच गई। तभी भीम ने सैकड़ों सैनिकों को मार डाला। संध्या के समय युद्ध बंद होने पर दुर्योधन भीष्म के शिविर में गया तथा कहा कि आप जी (मन) लगाकर युद्ध नहीं करते। भीष्म यह सुनकर क्रोधित हो उठे और बोले कि पांडव अजेय हैं, फिर भी मैं प्रयास करूँगा।

चौथे से सातवें दिन तक का युद्ध

चौथे दिन भीष्म ने प्रबल वेग से पांडवों पर आक्रमण किया। पांडव सेना में हाहाकार मच गया। आज अर्जुन का वश भी उनके सामने नहीं चल रहा था। पाँचवें, छठे और सातवें दिन भी भयंकर युद्ध चलता रहा।

आठवें दिन का युद्ध

आठवें दिन का युद्ध घनघोर था। इस दिन अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी से उत्पन्न पुत्र महारथी इरावान मारा गया। उसकी मृत्यु से अर्जुन बहुत क्षुब्ध हो उठे। उन्होंने कौरवों की अपार सेना नष्ट कर दी। आज का भीषण युद्ध देखकर दुर्योधन कर्ण के पास गया। कर्ण ने उसे सांत्वना दी कि भीष्म का अंत होने पर वह अपने दिव्यस्त्रों से पांडव का अंत कर देगा। दुर्योधन भीष्म पितामह के भी पास गया और बोला पितामह, लगता है आप जी लगाकर नहीं लड़ रहे। यदि आप भीतर-ही-भीतर पांडवों का समर्थन कर रहे हों तो आज्ञा दीजिए मैं कर्ण को सेनापति बना दूँ। भीष्म पितामह ने दुर्योधन से कहा कि योद्धा अंत तक युद्ध करता है। कर्ण की वीरता तुम विराट नगर में देख चुके हो। कल के युद्ध में मैं कुछ कसर न छोडूँगा।

नौवें दिन का युद्ध

नौवें दिन के युद्ध में भीष्म के बाणों से अर्जुन भी घायल हो गए। कृष्ण के अंग भी जर्जर हो गए। श्रीकृष्ण अपनी प्रतिज्ञा भूलकर रथ का एक चक्र उठाकर भीष्म को मारने के लिए दौड़े। अर्जुन भी रथ से कूदे और कृष्ण के पैरों से लिपट पड़े। संध्या हुई और युद्ध बंद हुआ। रात्रि के समय युधिष्ठिर ने कृष्ण से मंत्रणा की। कृष्ण ने कहा कि क्यों न हम भीष्म से ही उन पर विजय प्राप्त करने का उपाय पूछें। श्रीकृष्ण और पांडव भीष्म के पास पहुँचे। भीष्म ने कहा कि जब तक मैं जीवित हूँ तब तक कौरव पक्ष अजेय है। भीष्म पितामह ने अपनी मृत्यु का रहस्य बता दिया।द्रुपद का बेटा शिखंडी पूर्वजन्म का स्त्री है। मेरे वध के लिए उसने शिव की तपस्या की थी। द्रुपद के घर वह कन्या के रूप में पैदा हुआ, लेकिन दानव के वर से फिर पुरुष बन गया। यदि उसे सामने करके अर्जुन मुझ पर तीर बरसाएगा, तो मैं अस्त्र नहीं चलाऊँगा।

दसवें दिन का युद्ध

दसवें दिन के युद्ध में शिखंडी पांडवों की ओर से भीष्म पितामह के सामने आकर डट गया, जिसे देखते ही भीष्म ने अस्त्र परित्याग कर दिया। कृष्ण के कहने पर शिखंडी की आड़ लेकर अर्जुन ने अपने बाणों से भीष्म को जर्जर कर दिया तथा वे रथ से नीचे गिर पड़े, पर पृथ्वी पर नहीं, तीरों की शय्या पर पड़े रहे।

भीष्म की शरशय्या

भीष्म के गिरते ही दोनों पक्षों में हाहाकार मच गया। कौरवों तथा पांडव दोनों शोक मनाने लगे। भीष्म ने कहा, मेरा सिर लटक रहा है, इसका उपाय करो। दुर्योधन एक तकिया लाया, पर अर्जुन ने तीन बाण भीष्म के सिर के नीचे ऐसे मारे कि वे सिर का आधार बन गए। फिर भीष्म ने कहा, प्यास लगी है। दुर्योधन ने सोने के पात्र में जल मँगाया, पर भीष्म ने अर्जुन की तरफ फिर देखा। अर्जुन ने एक बाण पृथ्वी पर ऐसा मारा कि स्वच्छ जल-धारा फूटकर भीष्म के मुहँ पर गिरने लगी। पानी पीकर भीष्म ने कौरव-पांडवों को जाने की आज्ञा दी और कहा कि सूर्य के उत्तरायण होने पर मैं प्राण त्याग करूँगा। भीष्म शरशय्या पर गिरने का समाचार सुनकर कर्ण अपनी शत्रुता भूलकर भीष्म से मिलने गया। उसने पितामह को प्रणाम किया। भीष्म ने कर्ण को आशीर्वाद दिया और समझाया कि यदि तुम चाहो तो युद्ध रुक सकता है। दुर्योधन समझता है कि तुम्हारी सहायता से वह विजयी होगा, पर अर्जुन को जीतना संभव नहीं। तुम दुर्योधन को समझाओ। तुम पांडवों के भाई तथा कुंती के पुत्र हो। तुम दोनों पक्षों में शांति स्थापित करो। कर्ण ने कहा,पितामह अब संघर्ष दूर तक पहुँच गया है। मैं तो अब सूत अधिरथ का ही पुत्र हूँ, जिसने मेरा पालन-पोषण किया है। यह कहकर कर्ण अपने शिविर में लौट आया।
भीष्म पर्व के अन्तर्गत 4 (उप) पर्व हैं और इसमें कुल 122 अध्याय हैं। इन 4 (उप) पर्वों के नाम हैं-
  • जम्बूखण्डविनिर्माण पर्व,
  • भूमि पर्व,
  • श्रीमद्भगवद्गीता पर्व,
  • भीष्मवध पर्व।
द्रोण पर्व में भीष्म के धराशायी होने पर कर्ण का आगमन और युद्ध करना, सेनापति पद पर द्रोणाचार्य का अभिषेक, द्रोणाचार्य द्वारा भयंकर युद्ध, अर्जुन का संशप्तकों से युद्ध, द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह का निर्माण, अभिमन्यु द्वारा पराक्रम और व्यूह में फँसे हुए अकेले नि:शस्त्र अभिमन्यु का कौरव महारथियों द्वारा वध, षोडशराजकीयोपाख्यान, अभिमन्यु के वध से पाण्डव-पक्ष में शोक, संशप्तकों के साथ युद्ध करके लौटे हुए अर्जुन द्वारा जयद्रथवध की प्रतिज्ञा, कृष्ण द्वारा सहयोग का आश्वासन, अर्जुन का द्रोणाचार्य तथा कौरव-सेना से भयानक युद्ध, अर्जुन द्वारा जयद्रथ का वध, दोनों पक्षों के वीर योद्धाओं के बीच भीषण रण, कर्ण द्वारा घटोत्कच का वध, धृष्टद्युम्न द्वारा द्रोणाचार्य का वध।

द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में अगले पाँच दिन के युद्ध का निर्णय

पितामह भीष्म के आहत होने पर आचार्य द्रोण को सेनापति बनाया गया। सेनापति बनने के बाद द्रोण ने प्रतिज्ञा की कि मैं भीष्म की तरह ही कौरव-सेना की रक्षा तथा पांडव-सेना का संहार करूँगा। मुझे केवल धृष्टद्युम्न की चिंता है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ही मेरी मृत्यु के लिए हुई है। दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से प्रार्थना की कि यदि आप केवल युधिष्ठिर को पकड़ लें। तो युद्ध भी रुक जाएगा और जनसंहार भी न होगा।

युधिष्ठिर को पकड़ने का षड्यंत्र

द्रोणाचार्य ने वचन दिया कि मैं पूरी शक्ति से युधिष्ठिर को बंदी बनाने की कोशिश करूँगा पर इसके लिए अर्जुन को युधिष्ठिर के पास से हटाना होगा। इस पर त्रिगर्त देश के राजा सुशर्मा तथा संसप्तकों ने विश्वास दिलाया कि युद्ध के लिए अर्जुन को चुनौती देंगे और लड़ते-लड़ते अर्जुन को दूर ले जाएँगे। उधर पांडवों को कृष्ण ने कहा कि कल कर्ण भी युद्ध में भाग लेगा। अतः अब युद्ध छल-प्रधान होगा, इसलिए युधिष्ठिर की रक्षा का पूरा प्रबंध होना चाहिए। इस प्रकार ग्याहरवें दिन प्रातः काल दोनों सेनाएँ आमने-सामने आ डटीं।

ग्याहरवें दिन का युद्ध

आज के युद्ध में आचार्य द्रोणाचार्य सेनापति थे। इन्हीं के साथ दुर्योधन, दुशासन, जयद्रथ, कृतवर्मा, कृपाचार्य, अश्वत्थामा और कर्ण भी थे। पांडव-सेना में सबसे आगे अर्जुन थे। अर्जुन को देखकर त्रिगर्तराज सुशर्मा आगे बढ़े। अर्जुन ने सात्यकि को बुलाकर कहा कि आचार्य द्रोण की पूर्व रचना युधिष्ठिर को पकड़ने के लिए की गई है। तुम सावधान रहना। हमारी सेना का सेनापतित्व धृष्टद्युम्न कर रहे हैं, इससे आचार्य द्रोण डरे हुए हैं।


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सुशर्मा और संसप्तकों ने तेज़ी से आगे बढ़कर अर्जुन को चुनौती दी। अर्जुन ने आचार्य द्रोण को नमस्कार करने के लिए दो तीर छोड़े। आचार्य ने अपने शिष्य को आशीर्वाद दिया। सुशर्मा अर्जुन को लड़ते-लड़ते काफ़ी दूर ले गए। शल्य ने भीम को रोका, कर्ण सात्यकि से जूझ पड़े तथा शकुनि ने सहदेव को ललकारा। युधिष्ठिर के साथ केवल नकुल रह गए। तभी यह अफवाह उड़ गई कि युधिष्ठिर पकड़े गए। धर्मराज के पकड़े जाने की खबर सुनकर अर्जुन तेज़ी से युधिष्ठिर के पास पहुँचे, अर्जुन ने देखा युधिष्ठिर सुरक्षित हैं। अर्जुन के आते ही आचार्य द्रोण ने युधिष्ठिर को पकड़ने की आशा छोड़ दी।

बारहवें दिन का युद्ध

आज फिर त्रिगर्तों ने अर्जुन को ललकारा और लड़ते-लड़ते उन्हें दूर ले गए। जब अर्जुन लड़ते-लड़ते उन्हें दूर ले गए। जब अर्जुन युधिष्ठिर की ओर लौटने लगे तो रास्ते में राजा भगदत्त ने हाथी पर सवार होकर अर्जुन का रास्ता रोक लिया और अपशब्द भी कहे। भगदत्त को मार डाला। इधर द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को पकड़ने की बहुत कोशिश की। सत्यजित युधिष्ठिर के रक्षक थे। सत्यजित ने द्रोणाचार्य के घोड़े मार दिए तथा रथ के पहिए काट दिए। द्रोणाचार्य ने अर्धचंद्र बाण से सत्यजित का सिर काट दिया। सत्यजित के मरने पर युधिष्ठिर रण-क्षेत्र से लौट आए। रात को दुर्योधन ने द्रोण से कहा कि आपकी प्रतिज्ञा पूरी नहीं हुई। लगता है पांडवों के प्रति आपका स्नेह है, नहीं तो युधिष्ठिर को पकड़ लेना आपके लिए कोई बड़ी बात नहीं।

चक्रव्यूह की रचना

दुर्योधन की बात से द्रोणाचार्य क्षोभ से भर उठे। उन्होंने कहा कि हमने कोई कसर नहीं उठा रखी, पर अर्जुन अजेय है। कल हम चक्रव्यूह की रचना करेंगे। यदि अर्जुन को दूर ले जाया जाए तो युधिष्ठिर को पकड़ा जा सकता है, क्योंकि चक्रव्यूह का भेद केवल अर्जुन को ही पता है।

तेरहवें दिन का युद्ध, अभिमन्यु का वध

आज फिर त्रिगर्तों और संसप्तकों ने अर्जुन को ललकारा। अर्जुन उनका पीछा करते हुए बहुत दूर चले गए। उसी समय कौरवों के दूत ने युधिष्ठिर को चक्रव्यूह के युद्ध का संदेश पत्र दिया। युधिष्ठिर चिंतित हो गए। इसी समय अभिमन्यु ने आकर युधिष्ठिर को प्रणाम किया तथा बताया कि जब मैं माँ के गर्भ में था, पिताजी ने चक्रव्यूह के युद्ध का वर्णन किया था। मैं गर्भ से ही सुन रहा था। छः द्वारों तक के युद्ध का वर्णन मैंने सुना। सातवें द्वार के युद्ध सुनते-सुनते माँ को नींद आ गई। मैं इस युद्ध के लिए तैयार हूँ। युधिष्ठिर ने चक्रव्यूह भेदन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। माता सुभद्रा ने स्वयं अपने पुत्र को अस्त्र-शस्त्रों से सजाया पर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा ने उन्हें रण-क्षेत्र में जाने को मना किया। अभिमन्यु ने अपनी पत्नी उत्तरा को समझाया और चक्रव्यूह के द्वार गए। चक्रव्यूह के पहले द्वार पर जयद्रथ थे। अभिमन्यु ने जयद्रथ पर बाण चलाया तथा व्यूह को भेदकर भीतर पहुँच गया। भीम तथा अन्य पांडव वीर भीतर न जा सके। अभिमन्यु ने दूसरे द्वार पर द्रोणाचार्य को, तीसरे पर कर्ण को तथा चौथे द्वार पर अश्वत्थामा को हटाकर पाँचवें द्वार पर बढ़ गया। कर्ण की सलाह पर सातों रथियों ने अभिमन्यु को घेर लिया। अभिमन्यु ने घोर संग्राम किया, पर चारों ओर से प्रहार होने पर वह घायल हो गया, उसका सारथी मारा गया, घोड़े भी घायल होकर गिर पड़े। वह तलवार लेकर आगे बढ़ा, पर उसकी तलवार कट गई। अब वह रथ का चक्र लेकर टूट पड़ा। तभी दुर्योधन- के पुत्र लक्ष्मण ने अभिमन्यु के सिर पर गदा फेंककर मारी। अभिमन्यु घायल हो गया, पर उसने वही गदा लक्ष्मण की ओर फेंकी। अभिमन्यु तथा लक्ष्मण दोनों के प्राण एक साथ निकल गए। कौरवों को अभिमन्यु के वध का हर्ष तथा लक्ष्मण की मृत्यु का शोक हुआ। अभिमन्यु की मृत्यु से पांडव शोक में डूब गए। यह समाचार पाकर सुभद्रा और उत्तरा विलाप करती हुई चक्रव्यूह के सातवें द्वार पर पहुँच गईं। सुभद्रा अपने पुत्र का सिर गोद में लेकर बिलख-बिलखकर रो पड़ी। उत्तरा ने सती होने की इच्छा प्रकट की पर उसके गर्भवती होने के कारण सुभद्रा ने मना कर दिया।
उस दिन के युद्ध त्रिगर्तों और संसप्तकों को पूरी तरह नष्ट करके अर्जुन लौटे तो चक्रव्यूह के युद्ध में अभिमन्यु के मारे जाने का समाचार मिला। वे अत्यंत व्याकुल हो उठे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सांत्वना दी तथा कहा कि अभिमन्यु की मृत्यु का कारण जयद्रथ है, क्योंकि उसे शंकर से यह वरदान मिला हुआ है कि अर्जुन को छोड़कर बाकी चारों पांडव तुम्हें नहीं जीत सकते। इसीलिए उसे पहले द्वार पर रखा गया था कि भीम आदि चक्रव्यूह में प्रवेश न कर सकें। तब अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि कल सूर्यास्त से पहले यदि जयद्रथ का वध मैं नहीं कर सका तो अपना शरीर भी अग्नि को समर्पित कर दूँगा। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनकर जयद्रथ काँपने लगा। द्रोणाचार्य ने आश्वासन दिया कि वे ऐसा व्यूह बनाएँगे कि अर्जुन जयद्रथ को न देख सकेगा। वे स्वयं अर्जुन से लड़ते रहेंगे तथा व्यूह के द्वार पर स्वयं रहेंगे।

चौदहवें दिन का युद्ध, जयद्रथ का वध

इस दिन द्रोणाचार्य ने शकट व्यूह बनाया तथा जयद्रथ को बीच में रखा। अर्जुन आज बड़े आवेश में थे। उन्होंने द्रोणाचार्य से घनघोर युद्ध किया, पर जीत की आशा न देखकर उनकी बगल से व्यूह के भीतर प्रवेश कर गए। युधिष्ठिर ने अर्जुन की रक्षा के लिए सात्यकि तथा भीम को भेजा। इसी समय भूरिश्रवा ने सात्यकि पर हमला किया। वह सात्यकि को मारना चाहता था कि अर्जुन के बाणों से उसके हाथ कट गए। वह गिर पड़ा तथा सात्यकि ने उसका सिर काट दिया। देखते-ही-देखते सूर्य डूब गया। अर्जुन ने अपना गांडीव उतार लिया। दुर्योधन बहुत प्रसन्न था। अर्जुन के भस्म होने के लिए चिता बनाई गई। दुर्योधन ने अर्जुन के चिता में जलने का दृश्य देखने के लिए जयद्रथ को भी बुला लिया। अर्जुन बिना शस्त्रों के चिता पर चढ़ने लगे तो कृष्ण ने कहा कि क्षत्रिय अपने अस्त्र लेकर चिता पर चढ़ते हैं। जैसे ही अर्जुन ने अक्षण-तूणीर बाँधकर अपना धनुष लिया, तभी कृष्ण ने कहा-शत्रु सामने है, वह बादलों में छिपा है। कृष्ण के कहते ही अर्जुन का बाण छूटा तथा जयद्रथ का सिर आकाश में ले गया। कौरवों में गहरा शोक छा गया तथा पांडवों में हर्ष। अब पांडवों में अगले दिन के युद्ध का विचार होने लगा। कृष्ण ने कहा कि कल हो सकता है कर्ण अर्जुन पर इंद्र से मिली अमोघ शक्ति का प्रयोग करे।

घटोत्कच की मृत्यु

कृष्ण ने प्रस्ताव रखा कि भीम का पुत्र घटोत्कच राक्षसी स्वभाव का है। वह अँधेरे में भी भयंकर युद्ध कर सकता है। यदि वह कल रात के समय कौरवों पर आक्रमण करे तो कर्ण को उस पर अमोघ शक्ति चलानी होगी। घटोत्कच ने रात के अँधेरे में ही कौरवों पर हमला कर दिया। धूल से आकाश ढँक गया। वर्षा होने लगी, कंकड़-पत्थर आकाश से गिरने लगे। दुर्योधन घबराकर कर्ण के पास गया। कर्ण पहले तो टालते रहे, पर दुर्योधन को अत्यंत व्याकुल देखकर अमोघ शक्ति लेकर निकला तथा उसने घटोत्कच पर अमोघ शक्ति का प्रयोग कर दिया। घटोत्कच मारा गया, पर कर्ण को यह चिंता हुई कि अब उसके पास अर्जुन के वध के लिए कोई शक्ति नहीं रही।

पंद्रहवें दिन का युद्ध द्रोणाचार्य का निधन

रात के आक्रमण से कौरव बहुत क्रोधित थे। आज द्रोणाचार्य भी बहुत क्रोधित थे। उन्होंने हज़ारों पांडव-सैनिकों को मार डाला तथा युधिष्ठिर की रक्षा में खड़े द्रुपद तथा विराट दोनों को मार दिया। द्रोणाचार्य के इस रूप देखकर कृष्ण भी चिंतित हो उठे। उन्होंने सोचा कि पांडवों की विजय के लिए द्रोणाचार्य की मृत्यु आवश्यक है। उन्होंने अर्जुन से कहा कि आचार्य को यह समाचार देना कि अश्वत्थामा का निधन हो गया है। अर्जुन ने ऐसा झूठ बोलने से इंकार कर दिया। श्रीकृष्ण ने कहा कि अवंतिराज के हाथी का नाम अश्वत्थामा है, जिसे भीम ने अभी मारा डाला है। कृष्ण ने युधिष्ठिर के पास रथ ले जाकर कहा कि यदि द्रोणाचार्य अश्वत्थामा के मरने के बारे में पूछें तो आप हाँ कह दीजिएगा। अभी भीम ने अश्वत्थामा हाथी को मारा है। तभी चारों ओर से शोर मच गया कि अश्वत्थामा मारा गया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से पूछा जिन्होंने कहा-हाँ। पर नर नहीं, कुंजर।
नर कहते ही कृष्ण ने ज़ोर से शंख बजा दिया, द्रोणाचार्य आगे के शब्द न सुन सके। द्रोण ने अस्त्र-शस्त्र फेंक दिए तथा रथ पर ही ध्यान-मग्न होकर बैठ गए। तभी द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न ने खड्ग से द्रोणाचार्य का सिर काट दिया। द्रोणाचार्य के निधन से कौरवों में हाहाकार मच गया तथा अश्वत्थामा ने क्रोध में आकर भीषण युद्ध किया, जिसके सामने अर्जुन के अतिरिक्त और कोई न टिक सका। संध्या हो गई थी, अतः लड़ाई बंद हो गई।
द्रोण पर्व के अन्तर्गत 8 (उप) पर्व और 202 अध्याय हैं। इन आठों (उप) पर्वों के नाम हैं-
  • द्रोणाभिषेक पर्व,
  • संशप्तकवध पर्व,
  • अभिमन्युवध पर्व,
  • प्रतिज्ञा पर्व,
  • जयद्रथवध पर्व,
  • घटोत्कचवध पर्व,
  • द्रोणवध पर्व,
  • नारायणास्त्रमोक्ष पर्व।
कर्ण पर्व के अन्तर्गत कोई उपपर्व नहीं है और अध्यायों की संख्या 96 है। इस पर्व में द्रोणाचार्य की मृत्यु के पश्चात कौरव सेनापति के पद पर कर्ण का अभिषेक, कर्ण के सेनापतित्व में कौरव सेना द्वारा भीषण युद्ध, पाण्डवों के पराक्रम, शल्य द्वारा कर्ण का सारथि बनना, अर्जुन द्वारा कौरव सेना का भीषण संहार, कर्ण और अर्जुन का युद्ध, कर्ण के रथ के पहिये का पृथ्वी में धँसना, अर्जुन द्वारा कर्णवध, कौरवों का शोक, शल्य द्वारा दुर्योधन को सान्त्वना देना आदि वर्णित है। 

कर्ण का सेनापतित्व


द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद कर्ण को कौरवों का सेनापति बनाया गया। कर्ण ने प्रतिज्ञा की कि मैं पूरी शक्ति से पांडवों का संहार करूँगा।

सोलहवें दिन का युद्ध

कर्ण ने अपनी सेना का व्यूह रचा। इसी समय नकुल कर्ण के सामने आए। कर्ण ने नकुल को घायल कर दिया। किंतु कुंती को दी हुई अपनी प्रतिज्ञा को याद करके नकुल का वध नहीं किया। दूसरी ओर अर्जुन संसप्तकों से लड़ रहे थे। कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम्हें कर्ण से युद्ध करना है। तभी सूर्यास्त हो गया तथा युद्ध बंद हो गया। रात्रि में कर्ण ने दुर्योधन से कहा कि अर्जुन के पास विशाल रथ, कुशल सारथी, गांडीव, अक्षय तूणीर आदि हैं। हमें इन सबकी चिंता नहीं, पर हमें एक कुशल सारथी की जरूरत है। कृष्ण की जरूरत है। कृष्ण के समान ही महाराज शल्य इस कला में निपुण हैं। यदि वे मेरे रथ का संचालन करें तो युद्ध में अवश्य सफलता मिलेगी। शल्य ने कर्ण का सारथी बनना स्वीकार कर लिया, पर कहा कि मुझे अपनी जुबान पर भरोसा नहीं है। कहीं कर्ण मेरी बात से नाराज़ होकर कुछ उलटा न कर बैठे, मुझे इसी बात का डर है। शल्य ने कर्ण का सारथी होना स्वीकार कर लिया। 


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सत्रहवें दिन का युद्ध

प्रातःकाल कर्ण और अर्जुन आमने-सामने आ डटे। इसी समय कर्ण ने देखा कि भीम कौरव-सेना का संहार कर रहे हैं। भीम ने कर्ण पर भी एक बाण छोड़ा, जिससे कर्ण को मूर्च्छा आ गई। यह देख शल्य रथ को भगा ले गए। 

दुशासन-वध

कर्ण का रथ अदृश्य होते ही भीम और भी तेज गति से कौरवों का संहार करने लगे। दुर्योधन ने दुशासन को भीम का सामना करने लिए भेजा। दोनों में भीषण संग्राम छिड़ गया। मौक़ा देखकर भीम ने दुशासन के सिर पर गदा से प्रहार किया, उसके हाथ उखाड़ लिये तथा अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उसकी छाती फाड़कर उसका रक्त पीने लगे। इसी समय कर्ण की मूर्च्छा जागी। उन्होंने दुबारा युद्ध-क्षेत्र में प्रवेश किया और युधिष्ठिर को घायल कर दिया। उनका सारथी उनका रथ भगा ले गया। उधर अर्जुन संसप्तकों का संहार करके लौटे तो पता चला कि युधिष्ठिर रण-क्षेत्र छोड़कर चले गए हैं। अर्जुन उन्हें देखने शिविर में चले गए। युधिष्ठिर पीड़ा से तड़प रहे थे, उन्होंने अर्जुन को जली-कटी सुनाई। अर्जुन ने भी तलवार निकाल ली, पर कृष्ण ने दोनों को शांत किया। 

कर्ण का निधन
आज अर्जुन का सीधा मुक़ाबला कर्ण से था। वे एक-दूसरे के बाणों को काट रहे थे। अर्जुन ने कर्ण के सारथी शल्य को घायल कर दिया। कर्ण ने अग्नि-बाण छोड़ा तो अर्जुन ने जल-बाण। कर्ण ने वायु-अस्त्र चलाकर बादलों को उड़ा दिया। अर्जुन ने नागास्त्र छोड़ा, जिसके उत्तर में कर्ण ने गरुड़ास्त्र। कर्ण के इस अस्त्र की काट अर्जुन के पास "नारायणास्त्र" थी, परंतु मनुष्य-युद्ध में वर्जित होने के कारण अर्जुन ने उसे नहीं छोड़ा। कर्ण ने एक दिव्य बाण छोड़ा तो कृष्ण ने घोड़ों को घुटनों के बल झुका दिया। इसी समय कर्ण के रथ का पहिया ज़मीन में धँस गया। कर्ण ने धर्म युद्ध के अनुसार कुछ देर बाण न चलाने की प्रार्थना की, मगर अर्जुन ने कहा कि अभिमन्यु को मारते समय तुम्हारा धर्म कहाँ गया था। कर्ण ने अर्जुन की छाती में एक ऐसा बाण मारा जिससे वे अचेत से हो गए तथा इसी बीच अपने रथ का पहिया निकालने लगे। थोड़ी देर में अर्जुन को होश आया। कर्ण को निहत्था देखकर कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि यही समय है कर्ण पर बाण चलाओ नहीं तो कर्ण का वध नहीं कर पाओगे। अर्जुन ने वैसा ही किया। कर्ण का सिर धड़ से अलग हो गया। कर्ण के मरते ही कौरवों में हाहाकार मच गया। रात को दुर्योधन चिंताग्रस्त था। कृपाचार्य ने समझाया कि अब पांडवों से संधि कर ली जाए, पर दुर्योधन अभी भी युद्ध के पक्ष में था। दुर्योधन ने कहा कि अभी आप हैं, अश्वत्थामा हैं। मैं चाहता हूँ कि मामा शल्य को सेनापति बनाया जाए। शल्य ने सेनापति पद स्वीकार कर लिया।
शल्य पर्व में कर्ण की मृत्यु के पश्चात कृपाचार्य द्वारा सन्धि के लिए दुर्योधन को समझाना, सेनापति पद पर शल्य का अभिषेक, मद्रराज शल्य का अदभुत पराक्रम, युधिष्ठिर द्वारा शल्य और उनके भाई का वध, सहदेव द्वारा शकुनि का वध, बची हुई सेना के साथ दुर्योधन का पलायन, दुर्योधन का ह्रद में प्रवेश, व्याधों द्वारा जानकारी मिलने पर युधिष्ठिर का ह्रद पर जाना, युधिष्ठिर का दुर्योधन से संवाद, श्रीकृष्ण और बलराम का भी वहाँ पहुँचना, दुर्योधन के साथ भीम का वाग्युद्ध और गदा युद्ध और दुर्योधन का धराशायी होना, क्रुद्ध बलराम को श्री कृष्ण द्वारा समझाया जाना, दुर्योधन का विलाप और सेनापति पद पर अश्वत्थामा का अभिषेक आदि वर्णित है। 

शल्य का सेनापतित्व तथा अठारहवें दिन का युद्ध 

शल्य को सामने देखकर युधिष्ठिर ने अर्जुन से कहा कि तुम संसप्तकों से युद्ध करो। भीम कृपाचार्य से मोर्चा लेंगे तथा मैं शल्य से युद्ध करूँगा। शल्य और युधिष्ठिर भिड़ गए। चारों ओर से शल्य पर आक्रमण होने लगे। वे ढाल और तलवार लेकर रथ से कूदे तथा युधिष्ठिर को मारने दौड़े इसी समय युधिष्ठिर ने शल्य पर एक घातक शक्ति का प्रयोग किया तथा शल्य की मृत्यु हो गई।

कौरव-सेना भाग खड़ी हुई। इसी समय दुर्योधन पांडवों के सामने आ डटा। सहदेव शकुनि पर झपटे। शकुनि का पुत्र उलूक अपने पिता की रक्षा के लिए बढ़ा, पर सहदेव ने उसके प्राण ले लिये। सहदेव ने शकुनि पर भी एक तीर छोड़ा तथा शकुनि भी मारा गया। 

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दुर्योधन का वध

शकुनि की मृत्यु के बाद दुर्योधन अकेले गदा लेकर रण-क्षेत्र से बाहर पैदल ही निकल गया। वह दूर सरोवर में जाकर छिप गया। उसे छिपते हुए कुछ लोगों ने देख लिया। कृष्ण ने कहा कि बिना दुर्योधन का वध किए पूरी विजय नहीं मिल सकती। उसी समय गाँव से आने वाले लोगों ने बताया कि उस सरोवर में एक मुकुटधारी व्यक्ति को छिपते हुए हमने देखा है। कृष्ण के कहने पर भीम ने दुर्योधन को अपशब्द कहकर ललकारा। दुर्योधन बाहर आ गया। उसी समय उसके गुरु बलराम उधर से आ निकले। कृष्ण ने दुर्योधन को युद्ध के लिए तैयार हो जाने को कहा। दुर्योधन ने कहा-मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ, पर धर्म युद्ध होगा और मेरे गुरु बलराम निरीक्षक होंगे। भीम तथा दुर्योधन में गदा युद्ध छिड़ गया। कृष्ण ने अपनी जाँघ पर थपकी मारी जिससे भीम को दुर्योधन की जाँघ तोड़ने की अपनी प्रतिज्ञा याद आ गई। गदा युद्ध में कमर के नीचे प्रहार नहीं किया जाता। दुर्योधन की जाँघ की हड्डी टूट गई। गिरते ही भीम ने उसके सिर पर प्रहार किया। बलराम इस अन्याय युद्ध को देख क्रोधित होकर भीम को मारने दौड़े, पर कृष्ण ने उन्हें शांत कर दिया। पांडव वहाँ से चले गए तथा धृतराष्ट्र और गांधारी बिलख-बिलखकर रोने लगे। 

अश्वत्थामा का सेनापतित्व

कौरवों के केवल तीन ही महारथी बचे थे-अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। संध्या के समय जब उन्हें पता चला कि दुर्योधन घायल होकर पड़े हैं, तो वे तीनों वीर वहाँ पहुँचे। दुर्योधन उन्हें देखकर अपने अपमान से क्षुब्ध होकर विलाप कर रहा था। अश्वत्थामा ने प्रतिज्ञा की कि मैं चाहे जैसे भी हो, पांडवों का वध अवश्य करूँगा। दुर्योधन ने वहीं अश्वत्थामा को सेनापति बना दिया। 

शल्य पर्व के अन्तर्गत 2 उपपर्व है और इस पर्व में 65 अध्याय हैं। ये 2 उपपर्व इस प्रकार है- ह्रदप्रवेश पर्व, गदा पर्व।

सौप्तिक पर्व में ऐषीक पर्व नामक मात्र एक ही उपपर्व है। इसमें 18 अध्याय हैं। अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य-कौरव पक्ष के शेष इन तीन महारथियों का वन में विश्राम, तीनों की आगे के कार्य के विषय में मत्रणा, अश्वत्थामा द्वारा अपने क्रूर निश्चय से कृपाचार्य और कृतवर्मा को अवगत कराना, तीनों का पाण्डवों के शिविर की ओर प्रस्थान, अश्वत्थामा द्वारा रात्रि में पाण्डवों के शिविर में घुसकर समस्त सोये हुए पांचाल वीरों का संहार, द्रौपदी के पुत्रों का वध, द्रौपदी का विलाप तथा द्रोणपुत्र के वध का आग्रह, भीम द्वारा अश्वत्थामा को मारने के लिए प्रस्थान करना और श्रीकृष्ण अर्जुन तथा युधिष्ठिर का भीम के पीछे जाना, गंगातट पर बैठे अश्वत्थामा को भीम द्वारा ललकारना, अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग, अर्जुन द्वारा भी उस ब्रह्मास्त्र के निवारण के लिए ब्रह्मास्त्र का प्रयोग, व्यास की आज्ञा से अर्जुन द्बारा ब्रह्मास्त्र का उपशमन, अश्वत्थामा की मणि लेना और अश्वत्थामा का मानमर्दित होकर वन में प्रस्थान आदि विषय इस पर्व में वर्णित है। 


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धृष्टद्युम्न और द्रौपदी के पुत्रों का वध 


युद्ध के बाद कृष्ण पांडवों को लेकर किसी दूसरी जगह चले गए। कृपाचार्य, कृतवर्मा तथा अश्वत्थामा तीनों वीर पांडवों के शिविर के पास पहुँचकर एक पेड़ के नीचे रुक गए। अश्वत्थामा ने देखा कि रात के अँधेरे में उल्लू जैसा एक पक्षी उड़कर आया सोते हुए कौओं को एक-एक करके मार डाला। 

अश्वत्थामा ने भी निश्चय किया कि रात के समय ही शत्रु का संहार करना ठीक है। उसने कृतवर्मा तथा कृपाचार्य से अपने मन की बात कही। उन्होंने इसे अन्याय कहकर मना किया, पर अश्वत्थामा अपने पिता के हत्यारे धृष्टद्युम्न का वध करना चाहता था। वह उठा पांचालों के शिविर में घुस पड़ा। विवश होकर कृतवर्मा और कृपाचार्य को भी अपने सेनापति का साथ देने को तैयार होना पड़ा। अश्वत्थामा ने दोनों से कहा, आप द्वार पर रुकें तथा जो भी निकले उसे जीन्दा न छोड़ें। अश्वत्थामा ने सोए हुए धृष्टद्युम्न पर तलवार का वार किया तथा कोलाहल सुनकर जो भी बाहर भागा, उसे कृतवर्मा और कृपाचार्य ने मार डाला। अश्वत्थामा पांडवों के शिविर में गया तथा द्रौपदी के पाँचों पुत्रों के सिर काट डाले तथा शिविर में आग लगा दी। 


स्त्री पर्व में दुर्योधन की मृत्यु पर धृतराष्ट्र का विलाप, संजय और विदुर द्वारा उन्हें समझाना-बुझाना, पुन: महर्षि व्यास द्वारा उनको समझाना, स्त्रियों और प्रजा के साथ धृतराष्ट्र का युद्ध भूमि में जाना, श्री कृष्ण, पाण्डवों और अश्वत्थामा से उनकी भेंट, शाप देने के लिए उद्यत गान्धारी को व्यास द्वारा समझाना, पाण्डवों का कुन्ती से मिलना, द्रौपदी, गान्धारी आदि स्त्रियों का विलाप, व्यास के वरदान से गान्धारी द्वारा दिव्यदृष्टि से युद्ध में निहत अपने पुत्रों और अन्य योद्धाओं को देखना तथा शोकातुर हो क्रोधवश शाप देना, युधिष्ठिर द्वारा मृत योद्धाओं का दाहसंस्कार और जलांजलिदान, कुन्ती द्वारा अपने गर्भ से कर्ण की उत्पत्ति का रहस्य बताना, युधिष्ठिर द्वारा कर्ण के लिए शोक प्रकट करते हुए उसका श्राद्ध कर्म करना और स्त्रियों के मन में रहस्य न छिपने का शाप देना आदि वर्णित है। 



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कौरवों-स्त्रियों का विलाप 

दुर्योधन की मृत्यु पर हस्तिनापुर के राजदरबार में शोक छा गया। महारानी भानुमती, गांधारी, धृतराष्ट्र तथा विदुर भी बिलख-बिलखकर रोने लगे। रानियाँ पागलों की तरह कुरुक्षेत्र की ओर दौड़ीं तथा गांधारी और धृतराष्ट्र भी कुरुक्षेत्र की ओर चल दिए। 

भीम की लौह-मूर्ति को चूर्ण करना 

कुरुक्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को समझाया तथा पांडव भी उनसे मिलने आए। धृतराष्ट्र ने कहा कि वह भीम को गले लगाना चाहते हैं जिसने अकेले ही मेरे पुत्रों को मार दिया। कृष्ण ने समझ लिया कि धृतराष्ट्र का हृदय कलुषित है। उन्होंने पहले ही भीम की लोहे की मूर्ति सामने खड़ी कर दी। धृतराष्ट्र ने उस मूर्ति को हृदय से लगाया तथा इतनी ज़ोर से दबाया कि वह चूर्ण हो गई। धृतराष्ट्र भीम को मरा समझकर रोने लगे, पर कृष्ण ने कहा कि वह भीम नहीं था, भीम की मूर्ति थी। धृतराष्ट्र बड़े लज्जित हुए। 

गांधारी का कृष्ण को शाप

कृष्ण पांडवों के साथ गांधारी के पास पहुँचे। वह दुर्योधन के शव से लिपट-लिपटकर रो रही थी। गांधारी ने कृष्ण को शाप दिया कि जिस तरह तुमने हमारे वंश का नाश कराया है, उसी तरह तुम्हारा भी परिवार नष्ट हो जाएगा। धृतराष्ट्र की आज्ञा से कौरव तथा पांडव वंश के सभी मृतकों का दाह-संस्कार कराया गया। स्त्री पर्व के अन्तर्गत 3 उपपर्व आते हैं, तथा 27 अध्याय है। ये 3 उपपर्व इस प्रकार हैं- जलप्रादानिक पर्व, विलाप पर्व, श्राद्ध पर्व।

शान्ति पर्व में 365 अध्याय हैं। शान्ति पर्व में युद्ध की समाप्ति पर युधिष्ठिर का शोकाकुल होकर पश्चाताप करना, श्री कृष्ण सहित सभी लोगों द्वारा उन्हें समझाना, युधिष्ठिर का नगर प्रवेश और राज्याभिषेक, सबके साथ पितामह भीष्म के पास जाना, भीष्म के द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति, भीष्म द्वारा युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर तथा उन्हें राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्म का उपदेश करना आदि वर्णित है। मोक्षपर्व में सृष्टि का रहस्य तथा अध्यात्म ज्ञान का विशेष निरूपण है। शान्ति पर्व में “मङ्कगीता’’ (अध्याय 177), “पराशरगीता” (अध्याय 290-98) तथा “हंसगीता” (अध्याय 299) भी है। शान्तिपर्व में धर्म, दर्शन, राजानीति और अध्यात्म ज्ञान का विशद निरूपण किया गया है। 

युधिष्ठिर का सिंहासन पर बैठना 

यद्यपि युद्ध के बाद युधिष्ठिर दुखी रहने लगे थे, उनका मन राज-पाट से हट गया था, पर महर्षि व्यास के कहने पर वे राजसिंहासन पर बैठे। इसके बाद युधिष्ठिर राजभवन गए तथा गांधारी और धृतराष्ट्र के चरणस्पर्श किए। बाद में वे भीष्म पितामह के दर्शन करने चल दिए। उनके साथ श्रीकृष्ण भी थे। शान्ति पर्व के अन्तर्गत 3 (उप) पर्व हैं- राजधर्मानुशासन पर्व, आपद्धर्म पर्व, मोक्षधर्म पर्व।



दुर्योधन की मृत्यु


अश्वत्थामा ने सोचा कि ये पांडवों के सिर हैं। वह दुर्योधन के पास पहुँचा तथा बताया कि उसने सभी पांचालों तथा पांडवों का वध कर दिया है। दुर्योधन ने भीम का सिर माँगा तथा उस पर एक मुक्का मारा तो पता चला कि यह भीम का सिर नहीं है। प्रातःकाल दुर्योधन ने देखा कि वे सिर द्रौपदी के पुत्रों के हैं तो उन्होंने कहा कि अब कुल में तर्पण करने वाला भी कोई नहीं बचा। इस प्रकार बिलखते हुए महाराज दुर्योधन का देहावसान हो गया। 

अश्वत्थामा का मणि-हरण 


प्रातःकाल होते ही पांडव अपने शिविर में आए तथा वहाँ हुई विनाश-लीला देखी। भीम क्रोध से भर गए तथा अश्वत्थामा की खोज में निकल पड़े। कृष्ण को चिंता हुई, क्योंकि वे जानते थे कि अश्वत्थामा के पास 'ब्रह्मशिरा' नाम का महास्त्र है जिसका प्रयोग किए जाने पर भीम नहीं बच सकते। कृष्ण, अर्जुन और युधिष्ठिर भी उसके पीछे हो लिये। अश्वत्थामा ने पांडवों को देखकर ब्रह्मशिरा अस्त्र छोड़ा और कहा सभी पांडवों का नाश हो। तभी अर्जुन ने पाशुपत महास्त्र छोड़ा। चारों ओर आग निकलने लगी। सृष्टि का नाश होता देखकर वेदव्यास तथा नारद उन अस्त्रों के बीच में आकर खड़े हो गए तथा दोनों से प्रार्थना की अपने-अपने अस्त्रों को वापस ले लें। अर्जुन ने उनका कहना मान लिया, पर अश्वत्थामा ने कहा कि मुझे अपना अस्त्र रोकना नहीं आता। इन दोनों ऋषियों ने कहा कि अश्वत्थामा के अस्त्र प्रभाव से अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा का गर्भ नष्ट होगा और अर्जुन के अस्त्र के बदले अश्वत्थामा को अपनी कोई बहुमूल्य वस्तु अर्जुन को देनी होगी। इस बात पर अश्वत्थामा को अपने मस्तक की मणि देनी पड़ी। मणि देते ही वह निस्तेज हो गया तथा व्यास के आश्रम में ही रहकर तपस्वी का जीवन बिताने लगा।

अनुशासन पर्व में कुल मिलाकर 168 अध्याय हैं। अनुशासन पर्व के आरम्भ में 166 अध्याय दान-धर्म पर्व के हैं। इस पर्व में भी भीष्म के साथ युधिष्ठिर के संवाद का सातत्य बना हुआ है। भीष्म युधिष्ठिर को नाना प्रकार से तप, धर्म और दान की महिमा बतलाते हैं और अन्त में युधिष्ठिर पितामह की अनुमति पाकर हस्तिनापुर चले जाते हैं। भीष्मस्वर्गारोहण पर्व में केवल 2 अध्याय (167 और 168) हैं। इसमें भीष्म के पास युधिष्ठिर का जाना, युधिष्ठिर की भीष्म से बात, भीष्म का प्राणत्याग, युधिष्ठिर द्वारा उनका अन्तिम संस्कार किए जाने का वर्णन है। इस अवसर पर वहाँ उपस्थित लोगों के सामने गंगा जी प्रकट होती हैं और पुत्र के लिए शोक प्रकट करने पर श्री कृष्ण उन्हें समझाते हैं।

भीष्म का उपदेश

युधिष्ठिर ने भीष्म के चरण-स्पर्श किए। भीष्म ने युधिष्ठिर को तरह-तरह के उपदेश दिए। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थ ही भाग्य है। राजा का धर्म है-पूरी शक्ति से प्रजा का पालन करें तथा प्रजा के हित के लिए सब कुछ त्याग दे। जाति और धर्म के विचार से ऊपर उठकर सबके प्रति सद्भावना रखकर प्रजा का पालन तथा शासन करना चाहिए। युधिष्ठिर भीष्म को प्रमाण करके चले गए।

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भीष्म का महाप्रयाण

सूर्य उत्तरायण हो गया। उचित समय जानकर युधिष्ठिर सभी भाइयों, धृतराष्ट्र, गांधारी एवं कुंती को साथ लेकर भीष्म के पास पहुँचे। भीष्म ने सबको उपदेश दिया तथा अट्ठावन दिन तक शर-शय्या पर पड़े रहने के बाद महाप्रयाण किया। सभी रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा अंतिम संस्कार किया।

परीक्षित का जन्म

युधिष्ठिर ने कुशलता से राज्य का संचालन किया। कुछ समय बाद उत्तरा को मृत-पुत्र पैदा हो गया। सुभद्रा मूर्च्छित होकर कृष्ण के चरणों में गिर पड़ी। द्रौपदी भी बिलख-बिलखकर रोने लगी। कृष्ण ने अपने तेज़ से उस मृत शिशु को ज़िंदा कर दिया। 

अनुशासन पर्व के अन्तर्गत 2 उपपर्व हैं:
  • दान-धर्म-पर्व, 
  • भीष्मस्वर्गारोहण पर्व।
आश्वमेधिक पर्व में 113 अध्याय हैं। आश्वमेधिक पर्व में महर्षि व्यास द्वारा अश्वमेध यज्ञ करने के लिए आवश्यक धन प्राप्त करने का उपाय युधिष्ठिर से बताना और यज्ञ की तैयारी, अर्जुन द्वारा कृष्ण से गीता का विषय पूछना, श्री कृष्ण द्वारा अनेक आख्यानों द्वरा अर्जुन का समाधान करना, ब्राह्मणगीता का उपदेश, अन्य आध्यात्मिक बातें, पाण्डवों द्वारा दिग्विजय करके धन का आहरण, अश्वमेध यज्ञ की सम्पन्नता, युधिष्ठिर द्वारा वैष्णवधर्मविषयक प्रश्न और श्रीकृष्ण द्वारा उसका समाधान आदि विषय वर्णित हैं। 

अश्वमेध यज्ञ 

कुछ ही समय बाद युधिष्ठिर ने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। यज्ञ का घोड़ा छोड़ा गया तथा अर्जुन घोड़े के रक्षक बनकर देश-देश विचरने लगे। केवल त्रिगर्त के राजा केतुवर्मा ने घोड़ा पकड़ा, पर अर्जुन के सामने उसकी एक न चली तथा उसने भी युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार कर ली। युधिष्ठिर का अश्वमेध यज्ञ पूर्ण हुआ। आश्वमेधिक पर्व के अन्तर्गत 3 (उप) पर्व हैं- अश्वमेध पर्व, अनुगीता पर्व, वैष्णव पर्व।

आश्रमवासिक पर्व में कुल मिलाकर 39 अध्याय हैं। आश्रमवासिक पर्व में भाइयों समेत युधिष्ठिर और कुन्ती द्वारा धृतराष्ट्र तथा गान्धारी की सेवा, व्यास जी के समझाने पर धृतराष्ट्र,गान्धारी और कुन्ती को वन में जाने देना, वहाँ जाकर इन तीनों का ॠषियों के आश्रम में निवास करना, महर्षि व्यास के प्रभाव से युद्ध में मारे गये वीरों का परलोक से आना और स्वजनों से मिलकर अदृश्य हो जाना, नारद के मुख से धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती का दावानल में जलकर भस्म हो जाना सुनकर युधिष्ठिर का विलाप और उनकी अस्थियों का गंगा में विसर्जन करके श्राद्धकर्म करना आदि वर्णित है।

 महाराज धृतराष्ट्र, गांधारी आदि का वानप्रस्थ ग्रहण

 युद्ध के बाद धृतराष्ट्र और गांधारी उदासीन जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन उन्होंने महर्षि व्यास के उपदेश से वानप्रस्थ धर्म ग्रहण कर वन जाने की इच्छा प्रकट की। यह समाचार सुनकर नगर-निवासी राजमहल में आए तथा उनके प्रति अपना प्रेम और आदर प्रकट किया। धृतराष्ट्र गांधारी को साथ लेकर हिमालय की ओर गए। उन्हीं के साथ कुंती, विदुर और संजय भी हो लिये। तपस्या करते हुए विदुर ने वन में ही समाधि ली। कुछ ही दिनों में वन की दावाग्नि में धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती जल मरे। आश्रमवासिक पर्व में भी 3 उपपर्व हैं- आश्रमवास पर्व, पुत्रदर्शन पर्व, नारदागमन पर्व।

आश्रमवासिक पर्व ~ महाभारत | Aashramvasik Parv ~ Mahabharat Stories In Hindi


आश्रमवासिक पर्व में कुल मिलाकर 39 अध्याय हैं। आश्रमवासिक पर्व में भाइयों समेत युधिष्ठिर और कुन्ती द्वारा धृतराष्ट्र तथा गान्धारी की सेवा, व्यास जी के समझाने पर धृतराष्ट्र,गान्धारी और कुन्ती को वन में जाने देना, वहाँ जाकर इन तीनों का ॠषियों के आश्रम में निवास करना, महर्षि व्यास के प्रभाव से युद्ध में मारे गये वीरों का परलोक से आना और स्वजनों से मिलकर अदृश्य हो जाना, नारद के मुख से धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती का दावानल में जलकर भस्म हो जाना सुनकर युधिष्ठिर का विलाप और उनकी अस्थियों का गंगा में विसर्जन करके श्राद्धकर्म करना आदि वर्णित है।

 महाराज धृतराष्ट्र, गांधारी आदि का वानप्रस्थ ग्रहण

 युद्ध के बाद धृतराष्ट्र और गांधारी उदासीन जीवन व्यतीत कर रहे थे। एक दिन उन्होंने महर्षि व्यास के उपदेश से वानप्रस्थ धर्म ग्रहण कर वन जाने की इच्छा प्रकट की। यह समाचार सुनकर नगर-निवासी राजमहल में आए तथा उनके प्रति अपना प्रेम और आदर प्रकट किया। धृतराष्ट्र गांधारी को साथ लेकर हिमालय की ओर गए। उन्हीं के साथ कुंती, विदुर और संजय भी हो लिये। तपस्या करते हुए विदुर ने वन में ही समाधि ली। कुछ ही दिनों में वन की दावाग्नि में धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती जल मरे। आश्रमवासिक पर्व में भी 3 उपपर्व हैं- आश्रमवास पर्व, पुत्रदर्शन पर्व, नारदागमन पर्व।
मौसल पर्व में कोई उपपर्व नहीं है, और अध्यायों की संख्या भी केवल 8 है। इस पर्व में ॠषि-शापवश साम्ब के उदर से मुसल की उत्पत्ति तथा समुद्र-तट पर चूर्ण करके फेंके गये मुसलकणों से उगे हुए सरकण्डों से यादवों का आपस में लड़कर विनष्ट हो जाना, बलराम और श्री कृष्ण का परमधाम-गमन और समुद्र द्वारा द्वारकापुरी को डुबो देने का वर्णन है। 

यादवों का नाश 


कृष्ण कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद द्वारिका चले आए थे। यादव-राजकुमारों ने अधर्म का आचरण शुरू कर दिया तथा मद्य-मांस का सेवन भी करने लगे। परिणाम यह हुआ कि कृष्ण के सामने ही यादव वंशी राजकुमार आपस लड़ मरे। कृष्ण का पुत्र साम्ब भी उनमें से एक था। बलराम ने प्रभासतीर्थ में जाकर समाधि ली। कृष्ण भी दुखी होकर प्रभासतीर्थ चले गए, जहाँ उन्होंने मृत बलराम को देखा। वे एक पेड़ के सहारे योगनिद्रा में पड़े रहे। उसी समय जरा नाम के एक शिकारी ने हिरण के भ्रम में एक तीर चला दिया जो कृष्ण के तलवे में लगा और कुछ ही क्षणों में वे भी परलोक सिधार गए। उनके पिता वसुदेव ने भी दूसरे ही दिन प्राण त्याग दिए। हस्तिनापुर से अर्जुन ने आकर श्रीकृष्ण का श्राद्ध किया। रुक्मणी, हेमवती आदि कृष्ण की पत्नियाँ सती हो गईं। सत्यभामा और दूसरी दूसरी पत्नियाँ वन में तपस्या करने चली गईं।
महाप्रास्थानिक पर्व में मात्र 3 अध्याय हैं। इस पर्व में द्रौपदी सहित पाण्डवों का महाप्रस्थान वर्णित है। वृष्णि वंशियों का श्राद्ध करके, प्रजाजनों की अनुमति लेकर द्रौपदी के साथ युधिष्ठिर आदि पाण्डव महाप्रस्थान करते हैं, किन्तु युधिष्ठिर के अतिरिक्त सबका देहपात मार्ग में ही हो जाता है। इन्द्र और धर्म से युधिष्ठिर की बातचीत होती है और युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग मिलता है।

पांडवों की हिमालय यात्रा 



श्री कृष्ण की मृत्यु के बाद पांडव भी अत्यंत उदासीन रहने लगे तथा उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने हिमालय की यात्रा करने का निश्चय किया। अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राजगद्दी सौंपकर युधिष्ठिर अपने चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ चले गए तथा हिमालय पहुँचे। उनके साथ एक कुत्ता भी था। कुछ दूर चलने पर हिमपात शुरू हो गया तथा द्रौपदी गिर पड़ी। उसका देहांत हो गया। युधिष्ठिर आगे बढ़ते रहे तथा रास्ते में एक-एक करके उनके सभी भाई गिरते गए तथा उनके प्राण जाते रहे। कुछ दूर जाने पर इंद्र अपने रथ से उतरकर आए तो युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग ले जाना चाहा। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं इस कुत्ते को छोड़कर नहीं जाना चाहता। वह कुत्ता यमराज था।

स्वर्गारोहण पर्व में कुल 5 अध्याय हैं। इस पर्व के अन्त में महाभारत की श्रवणविधि तथा महाभारत का माहात्म्य वर्णित है। इस पर्व के प्रथम अध्याय में स्वर्ग में नारद के साथ युधिष्ठिर का संवाद और द्वितीय अध्याय में देवदूत द्वारा युधिष्ठिर को नरकदर्शन और वहाँ भाइयों की चीख-पुकार सुनकर युधिष्ठिर का वहीं रहने का निश्चय वर्णित है। तृतीय अध्याय में इन्द्र और धर्म द्वारा युधिष्ठिर को सांत्वना प्रदान की जाती है।युधिष्ठिर शरीर त्यागकर स्वर्गलोक चले जाते हैं। चतुर्थ अध्याय में युधिष्ठिर दिव्य लोक में श्री कृष्ण और अर्जुन से मिलते हैं। पंचम अध्याय में वहीं भीष्म आदि स्वजन भी अपने पूर्व स्वरूप में मिलते हैं। तत्पश्चात महाभारत का उपसंहार वर्णित है। 

स्वर्गारोहण 

इंद्र युधिष्ठिर को स्वर्ग ले गए। वहाँ उन्होंने सभी कौरवों को देखा,पर अपने किसी भाई को नहीं पाया। उन्होंने अपने भाइयों और द्रौपदी को घोर नरक में पड़े देखा। युधिष्ठिर ने कहा कि मैं भी इन्हीं के साथ नरक में रहूँगा। उसी समय धर्मराज तथा इंद्र वहाँ आए। उनके आते ही सारा दृश्य बदल गया। धर्मराज ने युधिष्ठिर से कहा कि ऐसा हमने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए किया था। युधिष्ठिर ने अपने सभी भाइयों को प्रसन्न मुद्रा में देखा। उन्होंने मानव शरीर छोड़कर दैवी शरीर प्राप्त किया।

















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